Mar 7, 2016

हां मैं नारी हूं... कौन कहता है कि अबला हूं

महिला दिवस 08 मार्च पर खास लेख

आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की सुरक्षा अधिक चिंता और बहस का केंद्र बिंदु बन गया है। यह सवाल संसद से लेकर सड़क तक तैर रहा है। नारी मर्यादा को उघाड़ने वाली कुछ बारदातें हमारी संस्कृति को दुनिया के सामने नंगा किया है। महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा को लेकर भारत दुनिया के निशाने पर है। दिल्ली निर्भयाकांड हो उबर कैब या फिर बदायूं जैसे अपराध पर संयुक्तराष्ट भी चिंता जता चुका है। बदायूं कांड विदेशी मीडिया की सुर्खियां बन चुका है। अब विदेशी मीडिया भारत में घटती इस तरह की घटनाओं में अपना बाजार तलाश रहा है। स्वतंत्र फिल्मकार लेज्ली उडविन की ओर से दिल्ली गैंगे रेप पर तैयार की गयी डाक्यूमेंटी ‘‘इंडियाज डाटर‘‘ इसका उदाहरण है।


निर्भया बलात्कार कांड के बाद देश में इस तरह की घटनाओं में और इजाफा हुआ है। इससे यह साबित होता है कि हम नारी सुरक्षा के सवाल पर बड़ी-बड़ी कानूनी किताबे तैयार कर इस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं। जब तक हमारा नजरिया नहीं बदलेगा। देश की राजधानी दिल्ली बलात्कार प्रदेश में तब्दील हो गया है। महिलाओं के साथ सबसे अधिक बलात्कार दिल्ल्‘ाी और मध्यप्रदेश में होता है। नाएडा से पिछले दिनों एक निजी कंपनी की महिला इंजीनियर अपहरण सूर्खियों में रहा। इस घटना को लेकर दिल्ली पुलिस काफी परेशान दिखी। बाद में महिला सुरक्षित घर लौटी। दिल्ली की एक और महिला परिवारिक प्रताड़ना से उब कर घर छोड़ने को मजबूर हो गयी। लेकिन पुलिस की सक्रियता से उसे बरामद किया गया। दुनिया भर में 08 मार्च महिला अधिकारों और उपलब्धियों को लेकर जाना जाता है।

अमेरिका में पहली बार यह दिवस 1909 में 28 फरवरी को मनाया गया था। कोपनहेगन में इसे 1910 में अंतर्राष्टीय महिला दिवस का सम्मान दिया गया। लेकिन बाद में जुलियन और ग्रेगेरियन कैलेंडर के तुलनात्मक अध्ययन के बाद पूरी दुनिया में इसे 08 मार्च को मनाया जाने लगा। अपने अधिकारों को लेकर महिलाओं के भीतर उठी ज्वाला को इतिहास की तरीखों में सजा दिया गया। यह वैश्विक पुरुष सत्ता पर महिलाओं को स्त्री अधिकारों की सबसे बड़ी जीत थी। रुसी महिलाओं ने 1917 में मताधिकार के अधिकारों को लेकर बड़ा आंदोलन किया। इसका परिणाम रहा कि राष्टपति जार्ज को सत्ता छोड़नी पड़ी। बाद में बनी सरकार ने महिलाओं को मताधिकार का अधिकार दिया। पूरी दुनिया में स्त्री अधिकारों का संरक्षण और उनकी स्वतंत्रता का सवाल अहम बन गया है। लेकिन भारतीय संदर्भों में यह सबसे चिंता का विषय है। हालांकि भारत के वैदिक समाज में स्त्रियों को जिस तरह का सम्मान प्राप्त था उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती है। लेकिन आज के संदर्भ में केवल यह धर्मग्रंथों और मंचीयता तक ठहर गया है।

राष्टीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े चौकाने वाले हैं। देश भर में हर रोज 93 महिलाओं से बलात्कार होता है। जबकि दिल्ली में यह हर दिन चार के रेसियों पर पहुंच जाता है। 2012 में देश भर में 24,923 महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं हुईं जबकि एक साल यानी 2013 में यह बढ़ कर 33,707 पर पहुंच गया। निर्भयाकांड के बाद बलात्कार की स्थितियों और वृद्धि हुई है इससे बड़ी हमारे लिए शर्मनाक बात और क्या हो सकती है। दिल्ली में 2012 में जहां 585 मामले दर्ज हुए रेप के वहीं 2013 में यह बढ़ कर 1441 पर पहुंच गया। देश में दिल्ली, मुंबई, पुणे और जयपुर महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित महानगर साबित हुए। मुंबई में 391 जयपुर में 192 और पुणे में 171 बलात्कार के मामले दर्ज हुए। मध्यप्रदेश 2013 में 4,335 घटनाओं के बाद देश में सबसे टाप पर रहा। जबकि इसी साल राजस्थान में 3050 महाराष्ट में 3063 जबकि यूपी में 3050 शीलभंग की घटनाएं हुईं। इसी साल तमिलनाडू में 923 घटनाएं रिपार्ट की गयी। यहां बलात्कार का औसत 03 हर दिन है। देश में घटी रेप की 31,807 बारदातों में 94 फीसदी लोग परिवार से संबंधित लोग थे। जबकि 10,782 घटनाओं को पड़ोसियों ने अंजाम दिया।

इसके अलावा 18,171 में जाने पहचाने लोग शामिल थे। 2315 ऐसी घटनाएं हुई जिसका संबंध परिवारीक करीबियों से था। जबकि 539 में बेहद करीबी शामिल थे। 15,556 बलात्कार की घटनाओं में 18 से 30 की उम्र के लोग शामिल थे। जबकि 8,877 में 14 से 18 वर्ष के मध्य लोग शामिल थे। बलात्कार एक मनोविकार है। देश में आज भी 70 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओं की मुहिम चला रहे हैं लेकिन 10 लाख बेटियों की हत्या हर साल मां के गर्भ में कर दी जाती है। दहेज की बलिवेदी पर हर 77 मिनट में एक महिला की हत्या कर दी जाती है। जबकि 29 मिनट में एक स्त्री की मर्यादा का चीरहरण होता है। नारी अधिकारों पर मंचीय हल्ला मचाने वाले लोग लाख कोशिश के बाद भी संसद में 33 फीसदी आरक्षण नहीं दिला पाए। महिला अधिकारवादियों के लिए यह शर्म की बात है।

राजनीति में महिलाओं का शक्तिकरण नहीं दिखता है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 03 फीसदी है। लोकसभा में केवल 11 फीसदी महिलाएं हैं जबकि राज्यसभा में 16 फीसदी से अधिक। देश की सवा सौ अरब में आधी आबादी की हिस्सेदारी 61 करोड़ 50 लाख है। 65 फीसदी से अधिक महिलाएं साक्षर हैं। इसके बाद भी समाज में महिलाओं को बराबरी का हक और हूकूक हासिल नहीं है। यह हमारी सोच का सबसे घटिया नजरिया है। जबकि महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। 29 फीसदी महिलाओं का इस्तेमाल कार्यबल में हो रहा है। वहीं साफटवेयर उद्योग में 30 फीसदी महिलाए लगी है। जबकि हमारी कृषि प्रधान हैं व्यवस्थाा में महिलाओं की भागरीदारी पुरुषों से अधिक है। यहां 55 फीसदी महिलाएं अन्नोत्पादन में अपने श्रम पर राष्टीय भागीदारी निभा रही हैं। लेकिन लैंगिग असमानता बड़ा सवाल है। देश में प्रति 1,000 पुरुषों पर इनकी संख्या 943 है। महिलाओं की स्थिति आज भी चिंतनीय बनी है। हमारा समाज महिलाओं की स्वतंत्रता को पचा नहीं पा रहा है।

स्त्रियों के मसले पर आधुनिक और रुढ़िवादी परंपराओं के बीच सीधा टकराव दिखता है। पुरुष इसे खुद के अधिकारों के अतिक्रमण के रुप में देखता है। जबकि युवा समाज अपनी सोच में बदलाव ला रहा है। वह जाति, धर्म और रुढ़िवादिता से आगे जाना चाहता है लेकिर उसके इस बदलाव में पुरानी सोच और हमारे सामाज की संरचना सबसे बड़ी बाधा बनी है। नारी अधिकारों को लेकर समाज में द्वंद्व चल रहा है। संसद में सिर्फ कानून बना कर हम नारी अधिरों की रक्षा नहीं कर सकते हैं। इसके लिए स्त्री को खुद आगे आना होगा। समाज में यह जिच देखी जाती है कि आखिर स्त्री अधिकारों और स्वतंत्रता के मध्य का जो अंतर है उसे कैसे पटा जाय। हम समाज में नारी के लिए किस हद की स्वतंत्रता की बात करते हैं ? वालीवुड और टालीवुड की स्वतंत्रता चाहिए या भारतीय संदर्भों में धरातलीय।

अभी तक इसका पैमाना हम तय नहीं कर पाएं हैं। शायद हमारे लिए यहीं सबसे खास बात है। हमारी समझ में स्त्री अधिकारों से अधिक उनकी स्वच्छंदता का सवाल है। भारतीय समाज में हर बार यह सवाल उठता है कि स्त्री अधिकारों की लक्ष्मण रेखा क्या हो ? हमारे विचार में बदले दौर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि स्त्री की सुरक्षा कैसे हो ? घर से लेकर सड़क तक वह कैसे स्वच्छंद हो। घर से निकली अकेली महिला कैसे सुरक्षित पहुंचे। हमें हर हाल में सोच में बदलाव लाना होगा। हम स्त्री स्वतंत्रता को मंचीय बना और तारीखों में सहेज नहीं रख सकते हैं। महिलाओं के प्रति हाल में हुई घटनाएं सबसे अधिक चिंता का सवाल खड़ी करती हैं। दिल्ली गैंगेरेप के दोषियों को दो साल बाद भी सजा नहीं मिल पायी है। हलांकि महिलाओं को समाज की मुख्धारा में लाने के लिए देश की सरकारों की तरफ से कई कानून बनाए गए हैं। लेकिन बदलाव के लिए लंबा सफर तय करना पड़ेगा। महिलाओं के सर्वांगीण विकास के लिए महिला सुरक्षा, तकनीकी शिक्षा और रोजगार के अवसर पर खास ध्यान देने की जरुरत है।

इसके साथ की ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमशिलता को बढ़ावा दिया जाए। सुरक्षा और रक्षा बलों में महिलाओं की संख्या बढ़ायी जाए। सस्ते और सुलभ कर्ज उपलब्ध करा महिलाओं को स्वालंबी बनाया जाए। शिक्षा में समानता के साथ गर्भ में बेटियों की हत्या पर प्रतिबंध लगाया जाए। बेटियों को लिए खास तरह की आर्थिक स्वालंबन योजनाएं चलायी जाएं जिससे बेटियों की शादी और स्वावलंबन को लेकर समाज की चिंता को बदला जा सके। अब वह वक्त आ गया है जब हम महिलाओं को उनकी सोच के मुताबित खुला आकाश उपलब्ध कराएं। जहां वें खुली सोच के साथ पंछी बन उड़ान भर पाएं। हमने स्त्री की जो एक सोच... अबला तेरी यही कहानी आंचल में दूध आंख में पानी ... बना रखी है। उससे बाहर आना होगा। तभी सच्चे अर्थों में महिला अधिकारों की रक्षा होगी। स्.त्री अधिकारों को लेकर हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती उनकी सुरक्षा है। महिलाएं आज हर मुकाम पर अपनी उपलब्धि का झंडा गाड रही हैं। महिलाओं के विकास में आज सबसे बड़ी बांधा उनकी सुरक्षा है। जब तक हमें उनके लिए खुला आसमान और खुली हवा उपलब्ध नहीं करते हैं तो हमारे लिए महिला स्वतंत्रता की बात बइमानी होगी।

लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं. मोबाइल- 892400544

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