जैसे ही किसी पत्रकार की हत्या की ख़बर आती है कैंडल मार्च और थोड़ा बहुत शोर और प्रदर्शन समेत ज्ञापनों के नाम पर कुछ दिन हंगामे के बाद मानो अगली हत्या के इंतज़ार में लोग ख़ामोश हो जाते हैं। हाल ही में बिहार समेत कई जगहों पर कुछ पत्रकारों की हत्या के बाद भी कई दिनों तक कुछ संघटन और पत्रकारों ने अपने ख़्याली ग़ुस्से और विरोध से सरकार और प्रशासन को हिलाने की कोशिश की। लेकिन ज़मीनी सच्चाई इसके बिलकुल उलट है। हो सकता है मुझ से कुछ लोग और नाराज़ हो जाएं। चूंकि पहले ही काफी लोग नाराज़ दिखते हैं। इसलिए कुछ और भी हो जाएं तो अपनो की नाराज़गी का भला किया गिला। लेकिन बेहद अदब के साथ फिलहाल यही कहना है कि भाइयो अपने पत्रकार साथी की मौत का इंतज़ार करने की बजाय उनकी ज़िंदगी में ही उन हालात का विरोध कर लो जिनकी वजह तिल तिल मरता पत्रकार अपनी ही लड़ाई को हार बैठता है। आज आपसे एक सच्ची और ख़ुद से साथ घटित घटना का ज़िक्र करते हैं।
ऐसा नहीं कि 3 मई 2011 को देश में पत्रकारों के हितैषी मौजूद नहीं थे। ऐसा भी नहीं कि उस दिन पत्रकारों ने ये ख़बर न देखी हो कि कई राष्ट्रीय चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे आज़ाद ख़ालिद के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के कथित इशारे पर ग़ाज़ियाबाद के ज़िलाधिकारी के निर्देश पर कुछ प्रशासनिक अफसरों ने कई फ़र्ज़ी एफआईआर दर्ज करा दीं हैं। इससे भी ख़ास बात ये रही कि इन सभी एफआईआर के दर्ज होने से पहले आज़ाद ख़ालिद को डराने और धमकाने का काम प्रशासन द्वारा किया जा रहा था। जिसकी शिकायत प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया से लेकर मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव तक से की जा चुकी थी।
आज़ाद ख़ालिद का अपराध यह था कि उन्होने आरटीआई के माध्यम से ली गई अवैध बूचड़खानों, सराकरी ख़जाने से सरकारी अफसरों द्वारा अरबों के हेरफेर समेत कई गरीबों के लिए लाई गईं आवासीय योजनाओं को प्राइवेट बिल्डरों को बेचे जाने की की जानकारी के आधार पर खबरों को प्रकाशित किया था। जबकि सुनने में यह आ रहा था कि इन्ही ख़बरों को दबाने के लिए गाजियाबाद और दिल्ली एनसीआर के कई पत्रकारों को प्रशासन ने लाखों रुपए कैश बांटे थे।
बहरहाल आज़ाद ख़ालिद के ख़िलाफ एक मामला दर्ज हुआ। शिकायतकर्ता एक सरकारी अफसर थे। लेकिन उनको लगा कि आज़ाद ख़ालिद को घेरना आसान काम नहीं है। इसलिए दूसरा मामला दर्ज करा दिया गया। फिर आज़ाद ख़ालिद के 85 साल के सेवानिवृत केंद्रीय कर्मचारी बुज़ुर्ग पिता तक को एफआईआर में लपेट दिया गया। छह सात जीपों में भरकर कई दर्जन पुलिस वालों ने ऐसे छापेमारी कर डाली जैसे के लादेन को पकड़ने का ठेका उत्तर प्रदेश पुलिस को मिल गया हो।
गाजियाबाद प्रशासन और पुलिस ने आज़ाद ख़ालिद पर शिकंजा सख्त करना और दूसरे पत्रकारों पर बोरियों का मुंह खोलना शुरु कर दिया। इसके अलावा कई दागी पत्रकारों को उनका काला चिठ्ठा दिखाया और आज़ाद खालिद के साथ खड़ा होने से रोकना शुरु कर दिया। लेकिन इस सबके बावजूद कई पत्रकारों ने न सिर्फ आजाद खालिद का साथ दिया बल्कि एक ज्ञापन राष्ट्रपति महोदय तक को दिया और एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर राज्य सरकार तक को घेरने की कोशिश कर डाली।
उधर राज्यसभा सांसद और बसपा महासचिव नेरंद्र कश्यप ने अपने घर जिलाधिकारी और आज़ाद ख़ालिद को बुलाकर मामले को रफादफा करने के नाम पर आगे से इस तरह की ख़बरे न लिखने की शर्त पर आज़ाद ख़ालिद को क्षमादान देने का स्वांग रचा। इस बीच भीषण गर्मी में आज़ाद ख़ालिद के घर की लाइट और पानी लगभग एक महीने तक कटा रहा। आज़ाद ख़ालिद ने झुकने या समझौता करने की बजाए हाइकोर्ट की शरण ली और लगभग पांच साल की लड़ाई के बाद ख़ुद पर लगे सभी आरोपों से पाक साफ साबित किया। ये जीत आज़ाद ख़ालिद की नहीं बल्कि पत्रकारिता की जीत थी उन चंद पत्रकारों की हिम्मत की जीत थी जिन्होने बेहद दबाव के बावजूद इंसाफ की लड़ाई में आज़ाद ख़ालिद का साथ दिया। लेकिन ये हार थी उन पत्रकारों की जो एक बोतल या चंद सिक्कों के एवज़ प्रशासन के तलुवे चाटते रहे।
लेकिन आज उन पत्रकारों से भी सवाल पूछने का मन है जो मामले को मैनेज करने और आज़ाद ख़ालिद के बजाय प्रशासन के साथ सिर्फ इसलिए खड़े थे क्योंकि या तो उनको शाम को पुलिस से दारू की बोतल मिलती था या फिर किसी को मंथली या फिर किसी का काला चिठ्ठा पुलिस के पास था। लेकिन क्या आज वही लोग ये जवाब दे पाएंगे कि आख़िर वो पत्रकारिता जैसी सम्मानित सेवा में आए ही क्यों। क्या वो ये दावे के साथ कह सकते हैं कि कभी पुलिस उनके खिलाफ नाइंसाफी नहीं करेगी या फिर किसी माफिया का निशाना उनकी तरफ नहीं होगा।
बिहार हो या उत्तर प्रदेश, गोलियां तो बहुत पहले चलाई जा चुकीं है। बस किसी बदनसीब पत्रकार की हत्या का ऐलान होना ही बाक़ी रहता है। सिलसिला जारी है। आज मेरी तो कल तेरी बारी हो सकती है। असल पत्रकारिता तो तब है जब समय रहते ज़िदा पत्रकारों की जिंदगी और पत्रकारिता की गरिमा बचाने की रणनीति तैयार की जाए। नहीं तो जनाब,बाद में बग़ले बजाने से कोई नतीजा निकलने वाला नहीं।
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्रकार हैं डीडी आंखों देखीं, सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़, वॉयस ऑफ इंडिया समेत कई राष्ट्रीय चैनलों में मह्त्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं।)
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