उस दिन मुझे बेहद खुशी हुई जब गौरैयों का एक जोड़ा फुर्र-फुर्र करता आया और घर के बारामद में एक छोर पर लगे आइने में बार-बार चोंच से हमला कर चींचीं का शोर मचाने लगा। कभी आइने में चोंच मारती तो कभी नीम के पेड़ के नीचे रखी मिट्टी की हंडी में रखे पानी को अपनी चोंचों से निगलती। बच्चों की ओर से गौरैयों से खेलने और विनोद प्रियता के लिए कभी-कभी चावल के दाने आंगन में बिखेर दिए जाते हैं। उसे चूंगने के लिए गौरैयों के कई जोड़े आ धमकते। जैसे उन्हें चावल चूंगने का आमंत्रण दिया गया हो। अब गौरैयों ने बरामदे के झरोंखे में घास-फूंस का घोंसला भी तैयार कर लिया है। घर के बच्चे उसका पूरा खयाल रखते हैं।
गौरैया हमारी प्रकृति सहचरी है। प्रकृति और इंसान से वह बेहद करीब रहने वाली प्राणी है। हमारे बच्चों से इठलाती है और लुकाछिपी का खेल भी खेलती है। कभी पेड़ो पर लटकते घोंसलों में चीं चीं करती चूजों का दाना चुगाती। यह सब कितना सुखद होता था। लेकिन सब गुजरे दौर की बात हो चली है। लेकिन शकून की बात यह है कि अब गौरैया हमारे आसपास दिखने लगी है। गौरैया के संरक्षण को लेकर अब लोगों में जागरुकता आयी है। इंसारी दोस्त गौरैया अब दिखने लगी है। लेकिन भोगवादी संस्कृति ने हमें प्रकृति और उसके साहचर्य से दूर कर दिया है। विज्ञान और विकास हमारे लिए वरदान कम अभिशाप अधिक साबित हुआ है। प्रकृति और मानव के करीब रहने वाली पशु-पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं या होने के कगार पर हैं। गौरैया एक घरेलू और पालतू पक्षी है। यह इंसान और उसकी बस्ती के पास अधिक रहना पसंद करती है। पूर्वी एशिया में यह बहुतायत पायी जाती है। यह अधिक वजनी नहीं होती हैं। इसका जीवन काल दो साल का होता है। यह पांच से छह अंडे देती है।
आंध्र यूनिवरर्सिटी के एक अध्ययन में गौरैया की आबादी में 60 फीसदी से अधिक की कमी आयी है। व्रिटेन की ‘रायल सोसाइटी आफ प्रोटेक्शन आफ बर्डस‘ ने इस चुलबुली और चंचल पक्षी को ‘रेड लिस्ट‘ में डाल दिया है। दुनिया भर में ग्रामीण और शहरी इलाकों में गौरैया की आबादी घटी है। गौरैया की घटती आबादी के पीछे मानव और विज्ञान का विकास सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में बाग-बगीचे खत्म हो रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का सफाया हो रहा है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जीवों पर असर डाल रहा है। ग्रामीण इलाकों में पेड़ काटे जा रहे हैं। इसका सीधा असर इन पर दिख रहा है। गांवों में अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं। एसे मकानों में गौरैया को अपना घांेसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल रही है। पहले गांवों में कच्चे मकान बनाए जाते थे। उसमें लड़की और दूसरी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता था।
कच्चे मकान गौरैया के लिए प्राकृतिक वारावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध करते थे। लेकिन आधुनिक मकानों में यह सुविधा अब उपलब्ध नहीं होती है। यह पक्षी अधिक तापमान में नहीं रह सकता है। शहरों में भी अब आधुनिक सोच के चलते जहां पार्कों पर संकट खड़ा हो गया। वहीं गगन चुम्बी ऊंची इमारतें इस पक्षी की समस्याओं को और अधिक बढ़ा दिया है। वहीं संचार क्रांति इनके लिए अभिशाप बन गयी। शहर से लेकर गांवों तक मोबाइल और आकाश छूने को उद्यत टावरों से निकलते रेडिएशन से इनकी जिंदगी संकट में फंस गयी है। हलांकि सरकार ने अब मोबाइल टावरों पर प्रतिबंध लगा दिया है। वहीं देश में बढ़ते औद्योगिक विकास ने बड़ा सवाल खड़ा किया है।
औद्योगिक इकाईयों से निकले जहरीले धुएं से इनकी जिंदगी खतरे में पड़ गयी है। उद्योगों की स्थापना और पर्यावरण की रक्षा को लेकर संसद से सड़क तक चिंता जाहिर की जाती है लेकिन जमीनी स्तर पर यह दिखता नहीं है। कार्बन उगलते वाहनों को प्रदूषण मुक्त का प्रमाण पत्र चस्पा कर दिया जाता है। लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। वहीं खेती-किसानी में रसायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग बेजुबान पक्षियों और गौरैया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। आहार भी जहरीले हो चले हैं। केमिलयुक्त रसायनों के अधाधंुध प्रयोग से कीड़े मकोड़े भी विलुप्त हो चले हैं। जिससे गौरैयों के लिए भोजन का भी संकट खड़ा हो गया है। मकर सक्रांति पर पतंग उत्सवों के दौरान काफी संख्या में हमारे पक्षियों की मौत हो जाती है। पतंग की डोर से उड़ने के दौरान इसकी जद में आने से पक्षियों के पंख कट जाते हैं। हवाई मार्गों की जद में आने से भी इनकी मौत हो जाती है।
दूसरी तरफ बच्चों की ओर से चिड़ियों को रंग दिया जाता है। जिससे उनका पंख गिला हो जाता है और वे उड़ नहीं पाती है उन पर दूसरे ंिहंसक पक्षी जैसे बाझ इत्यादि हमला कर उन्हें मौत की नींद सुला देते हैं। वहीं मनोरंजन के लिए गौरैया के पैरों में धागा बांध दिया जाता है या उन्हें रंग कर छोड़ दिया जाता हैं। कभी-कभी धाका पेड़ों में उलझ जाता है जिससे उनकी जान चली जाती है। एक वह दौर भी था जब गांवों में बबूल और दूसरे पेड़ों पर मंकी टोपी वाले घोंसले लटकते दिखाई देते थे। लेकिन आज पर्यावरण के बढ़ते संकट के चलते गौरैयों के इन प्राकृतिक घोंसलों का अस्तित्व मिट गया है। हमारी दिनचर्या में जुड़ी गौरैया किस्से-कहानियों मंे तब्दील होती दिखती है। इंसानों के लिए गौरैया प्रकृति का अनुपम उपहार है। हमारे आसपास के हानिकारण कीटाणुओं को यह अपना भोजना बनाती थी। जिससे मानव स्वस्थ्य और वातावरण साफ सुथरा रहता था। गौरैया को अंग्रेजी में पासर डोमेस्टिकस के नाम से बुलाते हैं। इसे घरेलू पक्षी भी कहते हैं। यह इंसानी सभ्यता के आसपास अधिक रहती है।
मानव जहां-जहां गया गौरैया उसका हम सफर बन कर उसके साथ गयी। इसकी छह प्रजातियां पाई जाती हैं। जिसमें हाउस स्पैरो, स्पेनिश, सिंउ स्पैरो, रसेट, डेड और टी स्पैरो शामिल हैं। यह यूरोप, एसिया के साथ अफ्रीका, न्यूजीलैंड, आस्टेलिया और अमेरिका के अधिकतर हिस्सों में मिलती है। इसकी प्राकृतिक खूबी है कि यह इंसान की सबसे करीबी दोस्त है। नर गौरैया की पहचान इसके गले के नीचे काला धब्बा होता है। वैसे तो इसके लिए सभी प्रकार की जलवायु अनुकूल होती है। लेकिन यह पहाड़ी इलाकों में नहीं दिखती है। ग्रामीण इलाकों में अधिक मिलती है। गौरैया घास के बीजों को अपने भोजन के रुप में अधिक पसंद करती है। पर्यावरण प्रेमियों के लिए यह चिंता का सवाल है। इस पक्षी को बचाने के लिए वन और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से कोई खास पहल नहीं दिखती है।
दुनिया भर के पर्यावरणविद इसकी घटती आबादी पर चिंता जाहिर कर चुके हैं। वैसे यूपी सरकार में स्कूली बच्चों में गौरैया के प्रति जानकारी उपलब्ध कराने के लिए जागरुकता अभियान चलाया है। प्रसिद्ध पर्यावरणविंद मो. ईदिलावर के प्रयासों से दुनिया भर में 20 मार्च को गौरैया दिवस मनाया जाता है। लेकिन इसे बचाने के लिए धरातलीय स्तर पर जागरुकता नहीं दिखती है। गौरैया को संरिक्षत करने के लिए शहरों और ग्रामीण इलाकों में घोसलों के लिए सुरक्षित जगह बनानी होगी। उन्हें प्राकृतिक वातावरण देना होगा। घरों के आसपास आधुनिक घोंसले बनाएं जाएं। घोंसले सुरक्षित स्थान पर हों जिसेसे गौरैयों के अंडों और चूजों को हिंसक पक्षी और जानवर शिकार न बना सकें। घर-आगंन में उन्हें खुला वातारण दिया जाए। पक्षियों के प्रति दोस्ताना रवैया अपनाया जाय।
लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क : 892400544
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