Mar 18, 2016

पत्र-साहित्य और भगतसिंह

राजशेखर व्यास
भारतीय साहित्य में पत्र-साहित्य पर बहुत कम कार्य हुआ है । आम तौर पर पत्र को साहित्य मानने का रिवाज भी हमारे साहित्य में कम ही है । यूरोपीय देषों में पत्र-साहित्य पर बहुत कार्य हुआ है । चाहे महापुरूशों के प्रेम-पत्र हों या उनके आपसी वाद-विवाद के पत्र, प्रायः सभी प्रकार के पत्र प्रकाषित हुए हैं और उन पर पर्याप्त चर्चा भी हुई है । मेरा भी यह मानना है कि पत्रों में मनुश्य प्रायः अपना हृदय खोलकर रख देता है, बषर्ते कि ‘वह बहुत चतुर राजनेता या कोई खतरनाक कूटनीतिज्ञ न हो । साहित्यकारों के पत्र प्रायः भावनाओं के ओत-प्रोत, संवेदनषील और दिलचस्प हुआ करते हैं । यों पत्र-साहित्य बहुत प्राचीन काल से पत्रात्मक षैली में लिखे काव्य, महाकाव्य तथा ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं । ‘मेघदूत’ व ‘दूतकाव्य’ इसके अच्छे उदाहरण हैं । हिंदी साहित्य में जवाहरलाल नेहरू द्वारा संपादित पुस्तक ‘कुछ पुरानी चिटिठ्यॉं’ पत्र-साहित्य में बेहद महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें पंडितजी ने अपने विरोधियों के पत्र भी पूरी ईमानदारी और षिद्दत के साथ षामिल किए हैं ।’


हिंदी साहित्य में मेरी नजर में मदन गोपाल एंव श्री अमृतराय द्वारा संपादित प्रेमचंद की ‘चिट्ठी-पत्री’, स्व. पांडेय बेचन षर्मा ‘उग्र’ की ‘फाइल एंड प्रोफाइल’, पं. सूर्यनारायण व्यास का पत्र-साहित्य चार खंडों में ‘पत्रांजलि’ (षीघ्र प्रकाष्य) हिंदी में संभवतः अब तक पत्र-साहित्य का सबसे बड़ा भंडार है । फिर ‘बच्चन’ के पत्र, आचार्य जानकीवल्लभ षास्त्री की पुस्तक ‘निराला के पत्र’, हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘पत्र’, नेमिचंद्र जैन और मुक्ताबोध के बीच का पत्र-व्यवहार ‘पाया पत्र तुम्हारा’, क्रंातिकारियों के पत्रों पर आधारित पुस्तक ‘याद कर लेना कभी’ तथा सरदार भगतसिंह के पत्रों पर आधारित एकमात्र उपलब्ध पुस्तक ‘पत्र और दस्तावेज’ (संपादक-विरेंद्र सिंधु) अब तक उपलब्ध कृतियों में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं, हालॉंकि जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित पुस्तक ‘भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों के दस्तावेज’ भी उपलब्ध हैं, मगर उनमें भी  और विरेंद्र सिंधु की पुस्तक में भी पत्र और दस्तावेज कालक्रम में नहीं दिए गए, जिसके चलते बहुत से पत्र असमंजस भी पैदा करते हैं । षोध और अनुसंधान के रास्ते में रूकावट भी पैदा करते हैं । उनके अज्ञात और अनुपलब्ध पत्रों को विद्वानों के खोजने का प्रयास भी नहीं किया ।

इसी वर्श प्रकाषित और महामहिम राश्ट्रपति द्वारा लोकार्पित ‘भगतसिंह समग्र’ ‘मैं भगतसिंह बोल रहा हूॅं’ का ही एक तरह से तीसरा खंड है । पहले खंड में भगतसिंहजी की जीवनी, उनके द्वारा किया अनुवाद, उनके द्वारा लिखी हुई भूमिका, स्वयं भगतसिंह द्वारा लिखा गया अपने क्रांतिकारी मित्रों का परिचय तथा खंड-दो मे सरदार भगतसिंह के लिखे दुर्लभ पत्र, दस्तावेज तथा क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास षामिल है । इस दृश्टि से यह खंड बेहद महत्वपूर्ण हे । क्या है इन पत्रों में? भगतसिंह का ईमानदार और सच्चा चेहरा अंदर से बेहद कोमल, संवेदनषील, मानवीय करूणा के विलक्षण अनुगायक, अपनी संपूर्ण तेेजस्विता, अपने अंदर की समस्त आग के साथ बेहद प्यारा, भोला-भाला और क्रांति का जीता-जागता प्रतीक भगतसिंह मौजूद है । आम तौर पर क्रांतिकारियों को छुपकर ही काम करना होता था और उस जमाने में अपने आपको व्यक्त करने का कोई दूरदर्षन या सेटेलाइट का माध्यम तो था नहीं, जो कुछ उपलब्ध था, वह था रेडियों या चंद गिने-चुने अखबार । जो ब्रिटिस षासन के अधीन उनका भोंगा-चोंगा (माउथपीस) बना हुआ था, अंग्रेजों का ढोल पीटना उसके कर्तव्यों में षामिल था । इने-गिने अखबार थे, उनमें से कुछ लालाओं के चंगुल में तो कुछ अंग्रेजों की जी-हुजूरी में मषगूल थे । हॉं, कुछ लोग अवष्य थे इस दौर में भी जो घर फूॅंक तमाषा देखनेवालों की तरह अपना सर्वस्व राश्ट्र को अर्पण करने के लिए अपनी संपदा को लुटाकर भी अखबार निकालते थे । उन चंद अखबारों में स्व. गणेष षंकर विद्यार्थीजी का ‘प्रताप’, रामरिख सहगल का ‘चॉंद’, ‘भविश्य’, ‘अभ्युदय’, पं. सूर्यनारायण व्यास का ‘विक्रम’, आगरा से निकलने वाला ‘सैनिक’ और बनारस का ‘आज’ या दिल्ली का इंद्रविद्या वाचस्पति के संपादन में निकलने वाला ‘वीर अर्जुन’; लेकिन इनमें भी क्रांतिकारी अपने मूल नाम से कहॉं लिख पाते । अतः पत्र लिखना ही विचारों के आदान-प्रदान का एकमात्र माध्यम था । यों सरदार भगतसिंह इस मामले में परम सौभाग्यषाली हैं कि उन्होंने खुद ही ‘प्रोपेगंडा बाई डेथ’ अर्थात् मृत्यु द्वारा प्रचार का रास्ता चुना था। अपने युग के सभी तत्कालीन राजनेताओं में उम्र में छोटे होने के बावजूद वैचारिक दृश्टि से सबसे आगे की सोच रखनेवाले इस महान् विचारक ने यह कर भी दिखाया। उन्हें मालूम था कि अखबार-रेडियो में हमारे लिए कोई जगह नहीं है, बल्कि सारा तंत्र हमें फासिस्ट, चोर-डकैत और आतंकवादी घोशित करने में लगा हुआ है । उसके बावजूद भगतसिंह बराबर कभी अपने नाम से, कभी गुप्त नाम से, अपने तथा अपने क्रांतिकारी साथियों पर लगनेवाले बेबुनियाद आरोपों का मुॅंहतोड़ जवाब दिया करते थे । इसके दो सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण हैं- गांधीजी का ‘यंग इंडिया’ में लिखा हुआ लेख ‘फिलॉसफी ऑफ नॉब्र वायलेंस’ (अहिंसा का दर्षन) के जवाब में भगतसिंह का लिखा हुआ लेख ‘फिलॉसफी ऑफ द बम’ (बम का दर्षन ) और ‘मॉडर्न रिव्यू’ में रामानंद चट्टोपाध्याय की क्रांतिकारी विरोधी टिप्पणी और ‘इनकलाब’ को फासीवाद का नारा बताने पर भगतसिंह का करारा जवाब ‘इनकलाब के मायने क्या हैं’, जो उसी पत्र में प्रकाषित हुआ, आज उपलब्ध हैं । मगर इसके बावजूद अनेक गुप्त नामों में लिखे असंख्य पत्र, दस्तावेज तथा लेख आज इतिहास की काल-कोठरी मेें गुम हो गए या फिर जिसके हाथ जो लगा अथवा जो जीवित रह गया उसने उसे अपने नाम से मढ़वा लिया । ‘चॉंद’ के ‘फॉंसी’ अंक में सरदार भगतसिंह द्वारा श्रीकृश्ण, बलराम, अर्जुन, सिपाही और सैनिक नाम से लिखीं अपने क्रंातिकारी मित्रों की जीवनियॉं इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण हैं, फिर भी चूॅंकि अदालत में भगतसिंह अपना केस स्वयं लड़ रहे थे और उनके पास पर्याप्त समय था, इसलिए उन्होंने स्वयं अपना केस इतना लंबा खींचा था जिससे वे अपनी सारी बातें अदालत में कह सकें । वे अपने बयान और अपने विचार भी आम आदमी तक पहॅंुचाना चाहते थे । कुछ अखबार अदालत की कार्यवाही पर नियमित खबर छाप रहें थे तो कुछ सरदार भगतसिंह के अदालत में दिए गए बयानों को भी नियमित प्रकाषित कर रहे थे । उनमें ‘अभ्युदय’ और ‘वीर अर्जुन’ जैसे अखबार षामिल थे ।

यो भगतसिंह के पत्र-साहित्य-पूर्व में-विरेंद्र सिंधु की एक छोटी पुस्तक पत्र और दस्तावेज में प्रकाषित हो चुका है, मगर उसमें एक तो सरदार भगतसिंह का समग्र पत्र-साहित्य नहीं है, दूसरे वह कालक्रम में नहीं बन पाता । मेरे द्वारा संपादित ‘मैं भगतसिंह बोल रहा हॅंू खंड-दो’ में प्रकाषित पत्र भगतसिंह के विचार और जीवन-यात्रा के साक्षी हैं । पत्रों में मनुश्य अपना हृदय खोलकर रख देता है ।

अपने हृदय की संपूर्ण गहराइयों के साथ लिखे भगतसिंह के ये हृदस्पर्षी, संवेदनषील और विचारोत्तेजक पत्र उनके जीवन का आईना भी हैं । अब ये ग्रंथ के रूप में तीन खंडों में ‘मैं भगतसिंह बोल रहा हूं’ (प्रवीण प्रकाषन, दिल्ली)-उपलब्ध है- प्रामाणिक और आधिकारिक षोध के साथ । जिसे भारत के महामहिम राश्ट्रपति प्रो.ए.पी.जे. कलाम सा. ने 23 अप्रैल, 2003 को राश्ट्र को समर्पित किया है ।

राजशेखर व्यास
अपर महा निदेशक आकाशवाणी
आकाशवाणी भवन
संसद मार्ग,
नयी दिल्ली-110001

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