एक बार डाकुओं ने अपने यहाँ कवि सम्मलेन कराया.
जिस कवि ने जो पारिश्रमिक माँगा उससे दुगुना उनको दिया.
जब कवि लोग लौट रहे थे तो उन्हें डाकुओं की एक टुकड़ी ने रास्ते में रोक कर लूट लिया.
जब कवियों ने उनसे पूछा की अगर लूटना ही था तो पहले दिया क्यों.
डाकुओं का कहना था पारिश्रमिक देना हमारा धर्म था और अभी उसको लूटना हमारा पेशा है...!!!
नोट : इस कहानी का फाईनेंस मिनिस्टर जेटली, सरकारी कर्मचारियों के वेतन और इन्कम टैक्स से कोई ताल्लुक नहीं है.
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