उज्जयिनी के कुंभ को अन्य कुंभों से अधिक महत्व प्राप्त है क्योंकि इसमें सिंहस्थ भी समाहित है। सिंहस्थ महात्म्य में उज्जयिनी में सिंहस्थ पर्व के लिए दस योगों का होना आवश्यक माना गया है। सिंहराशि पर गुरू नहीं होने की स्थिति में यहां यह पर्व नहीं मनाया जा सकता। अन्य नवयोग होने पर भी यह पर्व नहीं होता। यहां सिंह राशि में गुरू की स्थिति को परम तेजस्वी माना गया है, तभी यहां के पर्व का नाम कुंभ पर्व न होकर सिंहस्थ है... इस सिंहस्थ और क्षिप्रा स्नान के महत्व को बता रहा हैं राजशेखर व्यास...
जहां सिंहस्थ का आयोजन होने जा रहा है, वह उज्जयिनी एक विलक्षण नगरी है। एक तरफ कालगणना का केन्द्र, ज्योतिष की जन्मभूमि और स्वयं ज्योतिर्लिंग भूत भावन महाकाल की नगरी है तो दूसरी ओर भगवान कृष्ण भी जिस महानगरी में विद्याध्ययन करने आये, उन्हीं महर्षिं सांदीपनि की भी ये नगरी है। यहीं पर संवत् प्रवर्तक सम्राट विक्रम ने अपना शासन चलाया, शकों और हूणों को परास्त कर पराक्रम की पताका फहराई। यहीं पर भास, भवभूति और भर्तृहरि ने कला-साहित्य के अमर ग्रंथों का प्रणयन किया और वैराग्य की धूनी रमाई। श्रृंगार-नीति और वैराग्य की अलख जगाने वाले तपस्वी भर्तृहरि, जगद् रूप और योगी पीर सत्स्येंद्रनाथ की साधना स्थली भी यही नगरी है। चंडप्रद्योत, उदयन, वासवदत्ता, चंड अशोक के न्याय और शासन का केन्द्र रही है – उज्जयिनी। ज्योतिष जगत के सूर्य वराहमिहिर, चिकित्सा के चरक, धनवंतरि और शंकु घटखर्पर वररूचि महारथियों से अलंकृत रही है कभी यह धरती।
प्राचीन ग्रंथों में वर्णन –
वेद, पुराण, उपनिषद कथा-सरित्सागर, बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’, शूद्रक का ‘मृच्छकटिकम्’ और आयुर्वेद, योग , वैदिक वाड्ग्मय योग-वेदांत, काव्य नाटक से लेकर कालिदास के ‘मेघदूत’ तक संस्कृत साहित्य इस नगरी के गौरवगान से भरा पड़ा है। पाली, प्राकृत, जैन, बौद्ध और संस्कृत साहित्य के असंख्य ग्रंथों में इस नगरी के वैभव का विस्तार से वर्णन हुआ है। उज्ज्यिनी का सर्वाधिक विशद विवरण ब्रह्म पुराण, स्कंद पुराण के ‘अवंति खंड’ में हुआ है।
इस नगरी में प्रवेश के लिए प्राचीन काल में चौबीस खंभा मुख्य द्वार था। कहते हैं ‘महाकाल वन’ का यही परकोटा था। महाकालेश्वर की यह नगरी क्षिप्रा-तट पर बसी है। क्षिप्रा का उद्गम ‘महू’ से कुछ दूर एक पहाड़ी से हुआ है। क्षिप्र गति से बहने के कारण ही संभवत: इसका नाम क्षिप्रा पड़ा। मालवा के विभिन्न हिस्सों में हंसती अठखेलियां करती यह चंबल में विसर्जित हो जाती है। स्कंद पुराण में लिखा है – पृथ्वी पर क्षिप्रा के समान कोई नदी नहीं है। इसके तट पर क्षण मात्र खड़े होने से ही मुक्ति मिल जाती है। भारत की इस ‘प्राचीन ग्रीनविच’ नगरी उज्जैन की आबादी लगभग 10.75 लाख है। कहते हैं यहां कण-कण में रचे-बसे इतने शिविलंग हैं कि आप एक बोरी भरकर चावल को लेकर निकलें और हर जगह चार-चार दाने भी डालें तो चावल कम पड़ सकते हैं शिवलिंग नहीं। यहां के 84
महादेव प्रसिद्ध हैं। प्राचीन मान्यता तो यह है कि उज्जैन एक सिद्धपीठ है। इसे चारों तरु से देवियों की सुरक्षा का कवच पहनाया गया है। समय-समय पर होनेवाले अनेक पर्व एवं त्यौहार मेले-ठेले भी इसी नगरी को जीवंत और जागृत बनाये रखते हैं। कभी कार्तिक मेला, कभी शनिश्चरी अमावस्या, कभी सोमवती अमावस्या तो कभी त्रिवेणी का मेला, कभी श्रावण की सवारी तो कभी चिंतामण की यात्रा। पंचकोसी यात्रा और इन सबसे बढ़कर सिंहस्थ पर्व।
दस योगों का होना आवश्यक
सिंहस्थ पर्व का उज्जयिनी से घनिष्ठ संबंध है। भारत की प्राचीन महानगरियों में उज्जयिनी को अत्यंत पवित्र नगरी माना गया है। प्रयाग, नासिक, हरिद्वार व उज्जयिनी की पवित्रता और श्रेष्ठता यहां होकर रह जाती रही है। इन नगरी ने देश को कम रत्न नहीं दिए हैं। पं0 सूर्यनारायण व्यास, विष्णु श्रीधर वाकणकर, नरेश मेहता, शरद जोशी, गजानन माधव मुक्ति बोध आदि इसी नगरी की देन हैं। यहां की प्रमुख बोली है-मालवी, जो अवंति में पली। समय-समय पर अनेक प्रवासी साहित्यकारों ने भी इस नगरी को अपनी साधना स्थली बनाया है जिनमें बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ भगवतशरण उपाध्याय, प्रभाकर माचवे से लेकर डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, शमशेर बहादुर सिंह, मन्नू भंडारी, बालकवि बैरागी, प्रभाकर-श्रोत्रिय तक एक लंबी परंपरा है।
प्रदूषण का शिकार
वर्तमान स्थिति में क्षिप्रा अपने प्रवाह और गहराई को खो चुकी है। कालिया देह पैलेस का रम्य स्थल, जो कभी कल-कल करती क्षिप्रा से प्रवाहमान बना रहता था। आज उजाड़ हो चला है। विगत सिंहस्थ में भी क्षिप्रा के जल की जगह आसपास के जल स्त्रोतों द्वारा सिंहस्थ स्नान दिवस पर नदी में प्रवाह बनाया गया था जबकि क्षिप्रा के मूल उद्गम का प्रवाह ही पर्याप्त है। ‘गाद’ तथा ‘जलकुंभी’ के कारण क्षिप्रा नदी न सिर्फ सूखती जा रही है अपितु जल भी आचमन योग्य नहीं रह गया है। विगत अनेक वर्षों से यह विशाल क्षिप्रा औद्योगिक प्रदूषण का भी शिकार होती जा रही है। यहां प्रतिवर्ष अखिल भारतीय कालिदास समारोह भी होता है तो टेपा सम्मेलन भी और गधों का मेला भी। मेंहदी, कुंकुम से नमकीन तक के लिए विख्यात भेरूगढ़ के छापे की चादरों से लेकर मालीपुर के हारों तक के लिए प्रख्यात है यह नगरी।
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