अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से खड़ी होना चाहती है। इसके लिये 2017 के विधान सभा चुनाव से बेहतर मौका और क्या हो सकता है। वैसे यह पहला प्रयास नहीं है और आखिरी भी नहीं होगा। करीब दो दशकों से यह सिलसिला चला आ रहा है। परम्परागत रूप से किसी भी चुनाव से पूर्व कांग्रेसी वापसी का ढिंढोरा पीटने लगते हैं। यह और बात है कि जब नतीजे आते हैं तो कांग्रेस जीत तो दूर तीसरे/चौथे स्थान पर दिखाई देती है। हर हार के बाद कुछ समय के लिये कांग्रेसी खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं और दिन बीतने के साथ चादर खिसकती जाती है। जब कांग्रेसियों के पास कोई वीजन नहीं होता है तो जनता को बार-बार नेहरू-गांधी परिवार की कुर्बानी की याद दिलाकर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेंल किया हैं। एक समय था उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास जनाधार वाले तमाम नेताओं की लम्बी-चौडी फौज हुआ करती थी।
नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, लोकपति त्रिपाठी, वासुदेव सिंह, बलदेव सिंह आर्य, सईद्दुल हसन, नरेन्द्र सिंह, राजा अजीत प्रताप सिंह, स्वरूप कुमारी बख्शी, अरूण कुमार सिंह मुन्ना, महावीर प्रसाद, सिब्ते रजी, प्रवीण कुमार शर्मा, सुनील शास़्त्री हुकुम सिंह(अब दोनों भाजपा में), शिव बालक पासी, जफर अली नकवी, दीपक कुमार, मानपाल सिंह, सुखदा मिश्रा जैसे तमाम नेताओं की अपने-अपने इलाकों में तूती बोला करती थी। एक तो इन ताकतवर नेताओं की फौज और उस पर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे नेताओं की सरपरस्ती ने कांग्रेस को कई दशकों तक यूपी में कमजोर नहीं होने दिया, लेकिन इंदिरा और राजीव गांधी की मौत के बाद उत्तर प्रदेश कांग्रेस में सब कुछ तितर-बितर हो गया।
न तो कांग्रेस की डूबती नैया को सोनिया गांधी उबार पाई, न ही राहुल गांधी की कोशिशें कामयाब हुईं। नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए जो 1989 तक सीएम की कुर्सी पर विराजमान रहे थे। यूपी में कांग्रेस का ग्राफ सेंसेक्स की माफिक गिरता ही गया। इस दौरान कई दिग्गज कांग्रेसी नेता स्वर्ग सिधार गये तो अनेकों दिल्ली नेतृत्व में पैनेपन के अभाव में मायूसीवश घरों में कैद होकर रह गये। कांग्रेस गर्दिश में समाती गई और कांग्रेसी चुनाव जीतने की बजाये बढ़बोलेपन के सहारे राजनीति की पतवार संभाले रहे।
कांग्रेस में ताकतवर नेताओं की कमी सबको खलती रही, लेकिन इस दौरान कोई नई लीडरशिप नहीं उभरी। चंदनाम जरूर सामने थे,लेकिन यह सर्वमान्य नहीं थे। पूर्व केन्द्री मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष डा0रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, संजय सिंह, आदित्य जैन, सलमान खुर्शीद, पूर्व नौकरशाह से नेता बने पीएल पुनिया, समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले बेनी प्रसाद वर्मा, फिल्म अभिनेता से नेता बने राजब्बर किस किस का नाम गिनाया जाये। कोई भी कांग्रेस को मझधार से नहीं उभार पाया।
बात यहीं आकर खत्म नहीं हुई थी,जिस कांग्रेस का सिक्का पूरे देश में चलता था,उस कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सोनिया-राहुल गांधी तक को अपनी जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी से वॉकओवर लेना पड़ जाता था। अमेठी और रायबरेली में सोनिया-राहुल की जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी अपना प्रत्याशी नहीं उतारती तो उपकार स्वरूप कांग्रेस नेतृत्व कन्नौज और मैनपुरी में अपना प्रत्याशी नहीं खड़ा करती ताकि मुलायम सिंह परिवार के सदस्य आसानी से अपनी जीत सुनिश्चित कर सकें।यूपी की तरह ही बिहार में भी कांग्रेस और राहुल गांधी नीतिश कुमार और लालू यादव के पिछल्लूग नजर आये।
बात ज्यादा पीछे न जाकर 2007 और 2012 के विधान सभा चुनाव, 2009 एवं 2014 के लोकसभा चुनाव के अलावा बीते लगभग चार वर्षो में हुए विधान सभा के उप-चुनाव की कि जाये तो कांग्रेस कहीं भी मुकाबले में नहीं दिखी। उक्त चुनावों और उसमें कांग्रेस की पतली हालत की चर्चा इस लिये हो रही है क्योंकि इन सभी चुनावों में कांग्रेस ने अपने युवराज राहुल गांधी को आगे करके जीत के बड़े-बड़े दावे किये थे।
जीत का स्वाद चखने के लिये राहुल गांधी ने दलितों के यहां जाकर कई दिन गुजारे। उनकी झोपड़ी में बैठकर खाना खाया।मच्छरों के बीच चरपाई पर सोये। जिस तरह राहुल ने दलितों को लुभाने के लिये अभियान चलाया था, उसी प्रकार मुसलानों को रिझाने के लिये भी उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। मुजफ्फरनगर दंगों हो या फिर दादरी कांड अथवा साम्प्रदायिक हिंसा का और कोई मामला राहुल स्वयं ऐसे मौकों पर गये और एक वर्ग विशेष के साथ एक पक्ष बनकर खड़े रहे।इसके बाद भी हाल ही में सम्पन्न हुए यूपी के पंचायत चुनावों में रायबरेली को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस का खाता नहीं खुला।
सबसे करारी हार राहुल के अपने लोकसभा क्षेत्र अमेठी में हुई है।इस हार की ठीकरा राहुल गाधी और उनके खास लोगों के सिर पर फूटने से बचाने के लिए टीम राहुल व उनके करीबी लोगों ने यह बहाना बनाना आरम्भ कर दिया है कि पंचायत चुनाव चूंकि सिम्बल पर नहीं लड़े गए थे, इसलिए हार की जिम्मेदारी राहुल गांधी पर डालना नाइंसाफी होगी। हालांकि पार्टी में कई लोग इस तर्क से सहमत नहीं थे। कई जिलों में ऐसे कई उम्मीदवारों को चयन के लिए सीधे तौर पर राहुल के करीबी लोगों पर अंगुलियां उठाई जा रही हैं।कांग्रेस के एक नेता ने कई जिलों की एक सूची बताई जहां पंचायत चुनाव अध्यक्षों की उम्मीदवारी तय करते समय उन जिलों के कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं से चर्चा करना तक जरुरी नहीं समझा गया था।
टीम राहुल के करीबी लोग कांग्रेस की हार के बचाव में विगत दो दशको का आंकड़ा देते हुए यह भी तर्क गढ़ रहे हैं कि यूपी में जिसकी सरकार रहती है, उसी पार्टी के लोग ही पंचायत चुनावों में जीतते रहे हैं।कांग्रेस को लगातार पराजय मिल मिल रही है,लेकिन आज भी यूपी में गांधी परिवार की उपस्थिति अमेठी रायबरेली, इलाहाबाद और थोड़ी-बहुत सूखा प्रभावित बुंदेलखंड आदि इलाकों तक सीमित है। कांग्रेस के पास कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं है जिसे मुख्यमंत्री के तोर पर प्रोजेक्ट किया जा सके। निर्मल खत्री, मधुसूदन मिस्त्री के सहारे संगठन अगर आगे बढ़ सकता तो कब का बढ़ गया होता। कांग्रेस में सर्वमान्य नेता का अभाव है तो सीएम के नाम पर जब चर्चा होती है तो कांग्रेसियों की सुंई प्रियेंका वाड्रा के नाम पर अटक जाती है।
ऐसे हालत में कांग्रेस 2017 में कैसे वापसी कर सकती है। इसका जबाव लोग राहुल से पूछ रहे थे तो राहुल गांधी किसी परिपक्त नेता की तरह जबाव देने के बजाये प्रशांत किशोर की शरण में चले गये। पहले मोदी के पीएम की कुर्सी तक पहुंचाने में और हाल ही में संपन्न हुए बिहार चुनाव में जदयू-राजद-कांग्रेस गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर राहुल की मर्जी के अनुसार अब यूपी चुनावों में कांग्रेस की कमान संभालेंगे।हाल ही में नई दिल्ली में यूपी चुनावों को लेकर कांग्रेस की बैठक में जब प्रशांत किशोर दिखाई दिये तो सियासी प्याले में उफान आ गया।
बाद में पता चला कि प्रशांत किशोर के कंधों पर राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की जिम्मेदारी डाली है। पिछले करीब तीन दशकों से कांग्रेसी यूपी में सत्ता का स्वाद चखना तो दूर नंबर तीन से आगे नहीं बढ़ पाये हों, लेकिन प्रशांत किशोर का साथ मिलते ही कांग्रेसी 2017 के चुनाव में बीजेपी, सपा और बसपा को चारो खाने चित कर देने का दावा करने लगे हैं। प्रशांत किशोर एक ऐसा नाम जो अब किसी पहचान का मोहताज नहीं है। फिर यदि परदे के पीछे रहने वाले इस शख्स को आप एक झटके में न पहचान पाएं हों, तो आपके बता दें कि ये वही शख्स है, जिसने पहले मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान संभाली। उसके बाद प्रशांत के सामने बड़ी परीक्षा तब आई जब बिहार में उन्हें मोदी के खिलाफ और नीतीश के समर्थन में रणनीति बनाने का मौका मिला।
लोकसभा चुनाव की कामयाबी का श्रेय मोदी की छवि और उनके जोरदार चुनावी भाषणों को गया। इन भाषणों में कई ऐसे नारे रहे जो आज तक लोगों के जेहन में ताजा हैं। अच्छे दिन की बात हो या ‘सबका साथ सबका विकास की बात,’ मोदी सरकार बनने के बाद भी ये नारे ताजा झोकों की तरह सुनने को मिलते रहे। अब बारी है उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की।प्रशांत किशोर 2017 में कांग्रेस के लिये उत्तर प्रदेश चुनाव जीत कर अपनी हैट्रिक लगाने का सपना देख रहे हैं तो वहीं राजनैतिक पंडितों को लगता है कि प्रशांत से कहीं चूक तो नहीं हो गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की और बिहार में नीतिश-लालू गठबंधन की जीत का पूरा श्रेय प्रशांत को नहीं दिया जा सकता है।
लोकसभा चुनाव के समय जो माहौल था, उस पर ध्यान दिया जाये तो तब दस वर्ष पुरानी मनमोहन सरकार से जनता बुरी तरह से ऊब चुकी थी और वह विकल्प तलाश कर रही थी। विकल्प के तौर पर उसे मोदी ही सामने दिखाई दिये तो उसने उनको ही चुन लिया। इसी प्रकार बिहार में नीतीश-लालू के महागठबंधन के पक्ष में मतदाताओं की लामबंदी इस लिये हुई थी क्योंकि यह गठबंधन सामाजिक रूप से काफी सशक्त था।नीतीश और लालू का अपना जनाधार था। वहीं उत्तर प्रदेश में अगर सत्ता विरोधी महौल बनता भी है तो इसका सबसे अधिक फायदा उठाने के लिये बसपा मौजूद है।बीजेपी भी मोदी के सहारे यूपी में बड़ा दांव लगाये बैठी है।यूपी में कांग्रेस के पास न तो कोई बड़ा चेहरा है और न ही कोई मजबूत वोट बैंक।
उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस या राहुल के साथ जाते हुए प्रशांत किशोर तर्क देते है कि वो संभावनाशील के साथ जाते हैं ?खैर, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव उनके सियासी सफर की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहे हैं। वैसे उत्तर प्रदेश से पहले इस साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में भी विधानसभा चुनाव होना है,जिसकी घोषणा भी कर दी गई है। असम और केरल में तो राहुल गांधी पर पार्टी की साख और सरकार दोनों बचाने की जिम्मेदारी है।
मुमकिन है प्रशांत किशोर के साथ हाथ मिलाने का फायदा पार्टी इन चुनावों में भी उठाना चाहे। राजनैतिक पंडित कहते हैं कि राहुल गांधी के नाम पर चुनाव लड़ाने में प्रशांत किशोर के सामने कई अड़चने आयेंगी। इतने सालों की सियासत के बावजूद भी राहुल गांधी की प्रशासनिक क्षमताएं साफ नहीं हैं। ऐसे में सिर्फ राहुल के नाम पर बनी चुनावी रणनीति का कारगर होना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि कांग्रेस में राहुल गांधी को केंद्र में रखे बिना कोई चुनावी रणनीति बन भी नहीं सकती। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में अग्निपरीक्षा तो प्रशांत किशोर की भी होने जा रही है।
यूपी में जातिवादी राजनीति हमेशा हावी रहती है।कई सीटे तो ऐसी हैं जहां प्रत्याशी का चयन ही योग्यता के आधार पर नहीं उसकी जाति देखकर किया जाता है।इसी प्रकार करीब डेढ़ सौ विधान सभा सीटें ऐसी जैं जहो अल्पसंख्यक मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।यहां भी जीत के लिये किसी रणनीति की जरूरत नहीं पढ़ती है। मुसलमान वोटर आंख मूंद कर उसे वोट कर देते हैं जो बीजेपी का हरा सकता है। ऐसी ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे आर0 जी0 (राहुल गांधी ) के माथे पर पी0के0 (प्रशांत किशोर) कैसे जीत का सेहरा बांध पायेंगे। यह देखने वाली बात होगी।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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