Jun 17, 2016

अपनी 12 दिनी जेल यात्रा के बाद पत्रकार पुष्प शर्मा ने भेजा एक लेख, आप भी पढ़ें

सरकार की गुप्त नीति के राज उधेड़ता एक लेख लिख दिया तो हम सांप्रदायिक हो गये? नेता दंगा कराए तो वो दूध का धुला ओर मैंने एक हक़ की आवाज़ उठायी तो हम पर देश में दंगे करवाने की धारा लगाकर जेल में ठूस दिया. हक़ की आवाज़ उठायी तो मिली काल कोठरी और प्राची बोले देश को मुसलमानों से मुक्त करना है तो वो देशभक्ति? मुसलमानों के हक़ माँगने वाला लेख क्या लिखा मंत्रालय और पुलिस ने ताक़त झोंक दी मुझे बर्बाद करने की.

http://www.milligazette.com/news/13831-we-dont-recruit-indian-muslims-modi-govts-ayush-ministry

आश्चर्य इस बात का नहीं था कि जेल जाना पड़ा, इस बात का था कि..बिना कोई जाँच हुए, बिना एफ एस एल करवाए पुलिस कैसे फ़र्ज़िवाड़े के आरोप लगा रही थी ...मंशा साफ थी इन्होंने जेल भेजकर विदेशों में हुई बदनामी को बचाना था. यही किया भी गया. आज तक मंत्री साहेब या मंत्रालय वो सबूत नहीं दे पाए इन्होंने किसी माइनॉर्टी ( मुसलमान / ईसाई की ) केंडीडेट की विदेश भेजे जाने वाले योग टीचर के पद पर भर्ती की हो? अगर की होती तो नाम कब के सामने आ गये होते मंत्री बाबू ...अरे काहे हिन्दुस्तान की जनता की अंखियों में धूल झोंक रहे हो? कोई नहीं इसका जवाब तो अब चुनाववा में दे ही दिया जाएगा ....


साथियों केसरिया संघी भारतीय प्रशासन ने मुझे कंसन्ट्रेशन केम्प (यानी प्रताड़ना करने की जगह) में रखा ताकि भविष्य में डर के कारण में लिखने से पहले हज़ार बार सोचूँ. वैसे तो जर्मन नाज़ियों ने इन्हें (कंसन्ट्रेशन कैंपों को) यहूदियों और विरोधी सैनिकों के विशेष रूप से बनवाया था. मगर अब तक खुशहाल जिंदगी में पहली बार मुझे यह एहसास तब हुआ जब पुलिस वालों ने मेरा जनेऊ तोड़ा और मुझ से ख़ुद के मुस्लिम ना होने का सबूत मांगा गया. पाक क़ुरान शरीफ का तिरस्कार करने को मजबूर किया गया. मैं नहीं जानता मेरे अंदर तब इनसे लड़ने की ताकत कहाँ से आ गयी और मेरे विरोध के आगे फिर इनका ज़़ोर ना चला. आदतन मैंने जब पाक क़ुरान के आगे हाथ जोड़कर सर झुकाया तो मेरे अंदर एक ही खयाल था बाहर आकर राजनीतिक शक्ति के जरिए लड़ना....एक शोर जैसी आवाज़ें सुनाई दे रही थी जिनमें सलाह भी थी ओर धमकी भी जिसका मुख़्तसर निचोड़ यह था "आगे से सरकार की आलोचना मत करना".

जेल की दुनिया अलग थी स्याह, डरावनी मगर मेरी राजनैतिक सोच को अधिकारी वर्ग ने सराहा और मुझे रोज़ अंग्रेजी और हिन्दी के अख़बार मिल जाते थे. वैसे तो जेल में पैसा ही चलता है और उसी नियम का मैंने भी पालन किया जिस कारण मुझे अच्छी सुविधा और हेल्पर मिल गया. 12 दिनों की जेल यात्रा ने अंदर मेरे अंदर सिर्फ इन्क़लाबी सोच पैदा की और मुझसे मिलने आने वाले हर युवा को मैने सिर्फ इन्क़लाबी सोच और अच्छाई के लिए लड़ने को जिंदगी बना लेने की बात समझाई. जिस दिन मेरी रिहाई के काग़ज़ पहुँचे उसकी खबर मुझे मेरे साथ अक्सर बतियाते अधिकारी (नाम बताना संभव नहीं) ने मुझे सदेश से भिजवाई ...थोड़ी देर बाद भोपू पर नाम सुनाई दिया और बेरक के 53 साथी उत्साहित होकर पास आ गये. मेरे पास जो कुछ भी था वो सब मैंने गरीब बंदियों मे बाँट दिया और मुझे बेराक से ले जाने मेरे मित्र अधिकारी जब वहाँ पहुँचे तो यह ना होने वाली घटना थी अन्यथा सिपाही वर्ग तक के लोग रिहा हुए व्यक्ति को बाक़ी फोरमेलिटी के लिए लेने आते हैं.

ये एक मार्मिक वक़्त था - बंदी साथी गले मिलते गये और बेरक से बाहर निकलते हुए मैं भावुक था और मैं "ओम नम: शिवाय" का जाप करते हुए आगे बढ़ा ही था ....जोशीले नारे लगाते कश्मीरी युवकों का समूह हाथ हिला रहा था. जबकि ये जेल मेनुअल की अवहेलना थी मगर जेल पुलिस को इन नारों की उम्मीद थी और मुझे जल्दी से तेज़ क़दमों से चक्कर (जेल का प्रमुख बिंदु जहाँ से जेल प्रशासित होती है) तक जाने को कहा गया ताकि बंदी मुझे ना देख सकें और नारेबाज़ी बंद हो जाए.

चक्कर पर पहुँचकर एक बात साफ नजर आई - जेल की उँची दीवारों मैं भी इंसानियत की भावनाएँ जनम लेती हैं. फ़िंगर प्रिंट मिलान ओर बाक़ी पहचान पक्की कर लेने के बाद जब मित्र अधिकारी ने घर तक भिजवाने का आफर रखा. शून्य के सिवा मेरे पास कुछ नहीं था .....ना विचार ....ना अभिभूति ना अनुभूति ......परंतु उनके इस मित्रवत व्यवहार को देखकर मैं चकित जरूर था ...... सिर्फ शुक्रिया कहकर मैं जाने लगा फिर भी उन्होंने चाय पर बुलाया ओर "राजनीतिक ताकत के साथ लड़ने" की बात को सराहा और सहमति दी. बाहर मेरे मित्र थे जिन्होंने जल्दी से गाड़ी में मुझे बिठाकर फोन मेरे हाथ मे दे दिया .....कुछ आवाज़ें आत्मा तक पहुँचती हैं ...मेरे परिवार के लोग दिल्ली से बाहर थे परंतु उनको कोर्ट द्वारा ज़मानत दिए जाने की खबर थी. गाड़ी सड़क पर दौड़ रही थी परंतु मुझे इंतज़ार था कहीं चिल्लड़ पेप्सी पीने का और गरमाए हुए सपनों को ठंडा करके उन्हें राजनीति के मार्ग पे ले जाने का.   अब मार्ग साफ दिख रहा था जनता के दरबार में जाकर अपनी बात रखने का...  विचार बिल्कुल साफ था .......

अपने हर लफ़्ज़ का खुद आइना हो जाउंगा,
उसको छोटा कहके मैं कैसे बड़ा हो जाउंगा।

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मै गिरा तो मसला बन कर खड़ा हो जाउंगा।

मुझ को चलने दो, अकेला है अभी मेरा सफ़र,
रास्ता रोका गया तो क़ाफिला हो जाउंगा।

Pushp Sharma
pushpsharma@gmail.com

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