Jan 15, 2016

मजीठिया: रणछोडदासों को एक मौका और

अब इसे सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी कहें या एक और कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा। जज ने अपना फैसला न सुनाते हुए ऐसे कागजी शेरों को एक और मौका दिया है जिन्होंने अपनी मानसिक गुलामी , मक्खनबाजी और स्वाभाविक दब्बूपन के कारण मालिकानों के एक इशारे पर लिखकर दे दिया कि उन्हें नए वेजबोर्ड के हिसाब से वेतन। और अन्य सुविधाएं नहीं चाहिए। वाह भाई क्या त्याग है? क्या महानता है? क्या स्वामिभक्ती है। ऐसा त्याग, ऐसी महानता और ऐसा स्वामीभक्ति तो शायद सामंती युग में भी न रही हो।


बहरहाल, किसी ने कहा है जब जागो तभी सबेरा। आशा की एक किरण सुप्रीम कोर्ट की ओर से फूट कर निकली है। यही मेरी जिंदगी को ही नहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाली पीढी को भी एक बेहतर कल देगी।

मालिकानों द्वारा प्रस्तुत कोरे कागज पर दस्तखत करने वालों ने अपनी उस नौकरी को जो नौकरी जैसी नौकरी नहीं है को बचाने के लिए आने वाली पीढी के पेट पर लात मारा है उनसे कुछ सवाल। उन्हें क्यों नहीं चाहिए अपनी , अपने बच्चों की बेहतरी? क्यों नहीं चाहिए स्थिर नौकरी ? क्यों नहीं चाहिए बेहतर वेतनमान सहित ढेरों सुविधाएं ।

क्या वे चाहते हैं कि इसी तरह कमरतोड काम करते रहें ? क्या वे चाहते हैं कि पहले की तरह मालिक दूध में पडी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दे ? क्या उनकी तरह ही उनके बच्चे भी नेताओं और नौकरशाही की दलाली करें ? क्या आगे भी पत्रकार प्रेस कान्फ्रेंसों एक अदद पेन और लेटर पैड के लिए रिरियाते रहें?

साथियों, ऐसे पत्रकारों से जिन्होंने दबाव या लालच में कोरे कागज पर हस्ताक्षर कर दिये हैं वो अपनी गलती सुधार कर मुख्यधारा में आ सकते हैं । इसके लिए वकील से सम्पर्क कर हलफनामा दें। श्रम विभाग से कोई अधिकारी आये तो बिना डरे हकीकत लिखकर दें। अब तक सारी की सारी चीजें मालिकानों के खिलाफ गई हैं। हर पेशी पर मालिकों ने मुंह की खायी है। अब तक छह वेजबोर्ड गठित हो चुके हैं यह पहला है जो इस मुकाम तक पहुंचा है।

सोचिए यदि सुप्रीम कोर्ट ने आधे अधूरे तथ्यों के बिना पर फैसला सुना दिया होता तो ...?

विभा अरुण
देहरादून

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