Jan 19, 2016

चुनावी बिसात पर एसपी, बीएसपी, बीजेपी, कांग्रेस एक सुर में- हमसे अच्छा कौन है!

अजय कुमार, लखनऊ
               
    उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव की तस्वीर धीरे-धीरे साफ होने लगी है। हाल ही में समाजवादी पार्टी द्वारा अपने दम पर चुनाव लड़ने की घोषणा के 24 घंटे के भीतर ही बसपा सुप्रीमों मायावती ने भी स्पष्ट कर दिया कि वह किसी के साथ चुनावी तालमेल नहीं करेंगे।  यह खबर यूपी में दोबारा पांव जमाने की कोशिश में लगी भाजपा को थोड़ी राहत पहुंचा सकती है, लेकिन महागठबंधन के नेताओं(लालू-नीतिश) और खासकर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिये मुलायम-मायावती की एकला चलों की नीति बड़ा झटका है।  यूपी में दशकों से वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस को पिछले तीन चुनावों में कड़ी मशक्कत के बाद भी राहुल गांधी उबार नहीं पाये तो 2017 के विधान सभा चुनाव में वह दूसरों(सपा-बसपा)के ‘आक्सीजन’ के सहारे कांग्रेस के उठ खड़ा हो जाने का सपना देखने लगे थे, लेकिन अब शायद ही उनका यह सपना पूरा हो पाये।  2017 में मुकाबला चाहें त्रिकोणीय हो या चतुकोणीय लेकिन इतना तय है कि अबकी बार चुनाव की तस्वीर काफी बदली-बदली नजर आयेगी। कई नये धुरंधर मैदान में ताकत अजमाते हुए दिखाई पड़ेगे तो 2012 के कई बड़े ‘खिलाड़ी’ परिदृश्य से बाहर नजर आयेंगे।  बात विकास की भी होगी और मुद्दा प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था का भी उछलेगा। धर्म की बातें होंगी तो साम्प्रदायिकता पर भी बहस भी छिड़ेगी।  जातिगत गणित यानी वोट बैंक साधने का खेल तो यूपी में कभी बंद ही नहीं होता है।  इसी लिये शायद अपराधियों और दंगाइयों, विवादित बयान देने वालों की गिरफ्तारी उनके अपराधों की बजाये उनकी जात-धर्म देखकर की जाती है।

     हर बार की तरह 2017 के विधान सभा चुनाव में भीं तमाम दलों के नरम-गरम नेता अपनी-अपनी भूमिका के साथ ताल ठोंकते दिर्खाइै पडे रहे हैं। कोई आगड़ों को रिझाना चाहता है तो कोई पिछड़ो, दलितों, मुसलमानों को। प्रदेश की 21 करोड़ जनता के हित की बात कोई नेता करते नहीं दिखता। सभी नेताओं के अपने-अपने दावे है।  ‘हम से अच्छा कौन है। ’ ‘यहां के हम सिकंदर।  ’ की तर्ज पर तमाम दलों के नेतागण जनता को लुभाने में लगे हैं।  मैदान में जंग की तैयार हो रही हे तो चुनावी ‘वॉर रूम’ में बैठकर भी विरोधियों पर ‘हमले’ की रणनीति बनाई जा रही है।  अब चुनावी जंग बैनर-पोस्टरों से नहीं लड़ी जाती है।  आंदोलन की राजनीति भी करीब-करीब हासिये पर पहुंच गई है।  हाईटेक युग में सब कुछ बदल गया है।  फेसबुक, ट्विटर, सोशल साइट पर प्रचार और मतदाताओं का ब्रेन वॉश किया जाता है।  पहले के नेता वोटरों के विचार और समस्याएं सुनते थे, लेकिन अब मतदाताओं के ऊपर नेता अपने विचार थोप कर चलते बनते हैं।
    सियासी भेड़ चाल में भले ही सभी दलों के नेता अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बता रहे हों लेकिन अपने राजनैतिक वजूद और अपने-अपने वोट बैंक को लेकर सहमे हुए भी रहते हैं। कोई भी दल अपने वोट बैंक में सेध लगते देखना नहीं चाहता है, परंतु दूसरे के वोटरों को कैसे अपने पक्ष में लुभाया जाये इसके लिये कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती है। बीजेपी चाहती है कि किसी तरह से वह बसपा के दलित और सपा के पिछड़ा वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब हो जाये तो बीएसपी नेत्री मायावती सपा का मजबूत वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमानों को लुभाने के लिये तमाम टोटके अजमा रही हैं।  भले ही बसपा सुप्रीमों मायावती भाजपा के सहारे प्रदेश में सत्ता का सुख उठा चुकी हों लेकिन आज की तारीख में वह कोई ऐसा मौका नहीं छोड़ती है जिससे वह यह साबित कर सकें कि सपा-भाजपा वाले मिले हुए हैं।  वह जानती हैं कि अगर यह बात वह मुसलमानों को समझाने में कामयाब हो गई तो चुनावी हवा का रूख बदलने में देरी नहीं लगेगी। सपा के पिछड़ा वोट बैंक पर भी बीएसपी की नजर है। माया हमेशा से यह साबित करने में लगी रहती है कि मुलायम पिछड़ों के नहीं सिर्फ यादवों के नेता हैं और उनके राज में यादवों का ही भला होता है।  वैसे इस हकीकत को पिछड़ा वर्ग से आने वाले तमाम गैर यादव नेता स्वीकार करने में तनिक भी परहेज नहीं करते है। इसमें सपा के भी कई गैर यादव पिछड़े नेता शामिल हैं, लेकिन सत्ता सुख उठाने के चक्कर में वह मुंह खोलने से बचते हैं, उन्हें डर रहता है कि गैर यादव पिछड़ों को हक दिलाने के चक्कर में कहीं उनके ही पैरों पर कुल्हाड़ी न पड़ जाये। मुलसमानों और पिछड़ों को लुभाने के साथ-साथ सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर गरीब आगड़ों को आरक्षण की वकालत करके मायावती सवर्ण कार्ड भी चल रही है, लेकिन पढ़ा-लिखा तबका जानता है कि संविधान में संशोधन किये बिना अगड़ों को आरक्षण मिल ही नहीं सकता है, लेकिन सियासी मोर्चे पर यह सब बाते कोई खास मायने नहीं रखती हैं।
    2012 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर बसपा का दलित वोट खिसकने की मायावती की चिंता अभी तक कम नहीं हुई है। वह 2017 तक इस मोर्चे को दुरूस्त कर लेना चाहती है, इसीलिये मोदी का नाम लेकर वह बार-बार कह रही हैं कि केंद्र सरकार दलित  महापुरुषों के नाम का दुरुपयोग कर रही है।  डॉ.अंबेडकर की 125 वीं जयंती पर गरीब तथा निर्बल लोगों के लिए कोई बड़ी योजना आरम्भ नहीं की गई। इसी तरह गांधी,  पटेल एवं जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं के मूल विचारों की अनदेखी भी हो रही है। मायावती अपने दलित वोट बैंक को साधे रखने व पिछड़े वर्ग के वोटों को जोड़ने के लिए हर वह पैंतरा अजमा रही हैं जिससे बसपा को वोट बैंक बचा रह सकता है। दलितों और पिछड़ों को प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण न मिलने एवं पदोन्नति में आरक्षण जैसे मुद्दे लंबित होने पर भी वह मोदी सरकार को भी घेरे हुए हैं। मायावती धर्म के मामले में काफी सख्त है। उन्हें न तो अयोध्या मसले में रूचि है न ही वाराणसी, मथुरा को लेकर उनकी चिंता है। मायावती इन मुद्दों पर भाजपा के साथ सपा को भी आड़े हाथों लेती रहती हैं।  उनका कहना है कि जनता को राममंदिर से पहले सुरक्षित जीवन जीने का भरोसा चाहिए।  भाजपा-सपा धार्मिक भावनाएं भड़का कर प्रदेश का माहौल बिगाड़ने में लगी है, जनता को सावधान रहना होगा।
    दूसरों पर हमलावार मायावती अपनी छवि को लेकर काफी सजग हैं। इसीलिये उन्होने पिछले दिनों अपने जन्मदिन पर धन बटोरने के आरोपों पर सफाई देने में जरा भी देरी नहीं की। माया ने आरोप लगाया कि कुछ मनुवादी सोच वाली ताकतें नहीं चाहतीं कि दलित आगे बढ़ें।  पार्टी से निकाले गए लोगों द्वारा मेरे खिलाफ दलित नहीं दौलत की बेटी,  जैसा दुष्प्रचार किया जा रहा है।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,  क्योंकि दलित समाज सच्चाई जानता है। बसपा अध्यक्ष अपने कार्यकर्ताओं से 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रही हैं तो कार्यकर्ताओं से जन्मदिन के उपहार के रूप में यूपी की सत्ता भी मांग रही हैं। यूपी और उत्तराखंड के पंचायत चुनाव के नतीजों से भी माया का हौसला बढ़ा हुआ हैं।  वह कार्यकताओं से यूपी-उत्तराखंड ही नहीं,  पंजाब,  असम व केरल जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों की खातिर तैयार रहने को कह रही हैं।  पंजाब में तो कांग्रेस, बसपा और लेफ्ट के बीच गठबंधन होने की भी चर्चा चल रही है।
    चुनावी अंर्तद्वंद के बीच नेतागण एक-दूसरे की खिल्ली भी खूब उड़ा रहे हैं।  पहले नेताओं के बीच विचारों की जंग होती थी आज के दौर में विचारों से अधिक लड़ाई वर्चस्व स्थापित करने की होती है।  इस चक्कर में बदजुबानी भी बढ़ जाती है। किसी नेता का नाम लिये जाया यह जरूरी नहीं है, लेकिन यह सच है ऐसा करते समय न तो नेतागण समय देखते है और न ही स्थान।  यही वजह है बसपा सुप्रीमो मायावती अपने जन्मदिन के शुभ मौके पर सकरात्मक बात करने की बजाये वि‌रोधी पार्टियों पर निशाना साधने से नहीं चुकती हैं। वह सैफई महोत्सव में उड़ाए गए धन पर सपा की आलोचना करती हैं तो की दूसरी ओर नरेंद्र मोदी पर अभी तक काला धन वापस न लाने पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकती है। मायावती अखिलेश सरकार की आलोचना करते हुए यहां तक कहती है कि सैफई महोत्सव और मुलायम केे जन्मदिन पर खूब सरकारी धन बर्बाद किया गया।  बात यहीं तक रहती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन उनकी जुबान पर तल्खी इतनी ज्यादा आ जाती है कि बिना लाग-लपेट के वह घोषणा कर देती हैं, ‘सपा लोहिया के समाजवाद के विपरीत काम कर रही है।  सपा और लोहिया के समाजवाद में जमीन आसमान का फर्क है।  लोहिया  होते तो मुलायम सिंह  को सपा से नि‌काल देते। ’
    मौका चुनाव का करीब हो तो फिर निशाने पर तो सभी विरोधी रहना चाहिए इस लिये जन्मदिन की खुशियां मनाते-मनाते बसपा सुप्रीमों के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आ जाते हैं और वह उन्हें याद दिलाने लगती हैं, ’ नरेंद्र मोदी ने हर वर्ग से वादे किये थे।  उनका एक भी वादा पूरा होता नहीं दिख रहा है।  उन्होंने काला धन वापस लाने की बात कही थी,  अभी तक खाते में 20-25 लाख रुपये नहीं आए।  वह वोटरों को लुभाने के लिये खुलासा करती हैं कि मोदी ने पेट्रोल और डीजल के दाम उस अनुपात में नहीं कम किये जिस अनुपात में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत घट रही हैं। बसपा प्रमुख के जन्मदिन पर यह सब बातें तब कहीं गई जबकि मायावती का जन्मदिन जन कल्याणकारी दिवस के रूप में मनाने का फैसला लिया गया था।
    वैसे चर्चा यह भी है कि बसपा सुप्रीमों अपने जन्मदिन से एक दिन पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के दिये ‘जख्मों’ से आहत थी, जिन्होंने व्यंग करते हुए माया का मजाक उड़ाया था।  अखिलेश ने लखनऊ में एक पार्क के उद्घाटन कार्यक्रम के दौरान बसपा सुप्रीमो मायावती को तानाशाह बताया था। अखिलेश यादव का कहना था कि बसपा में तो मुखिया के अगल-बगल कोई खड़ा भी नहीं हो सकता। उन्होंने अलीगढ़ के अतरौली से बसपा की घोषित प्रत्याशी संगीता चौधरी मामले पर मायावती पर तंज कस्ते हुए कहा कि इस पार्टी में तो मुखिया के साथ एक फोटो खिंचवाने पर टिकट कट जाता है,  लेकिन मेरे साथ कोई भी कहीं पर भी फोटो खींचा सकता है। (मालूम हो कि प्रदेश की अतरौली विधानसभा सीट से बसपा की उम्मीदवार संगीता चौधरी को पार्टी अध्यक्ष मायावती से मुलाकात के दौरान खींची गयी फोटो ‘फेसबुक’ पर डालने का खामियाजा टिकट गवां कर भुगतना पडा।  बसपा प्रत्याशी धर्मेन्द्र चौधरी की पिछले साल हत्या होने के बाद उनके स्थान पर टिकट पायीं उनकी पत्नी संगीता कुछ दिन पहले सपरिवार मायावती से मुलाकात करने गयी थीं।  इस दौरान उन्होंने और उनके बच्चों ने बसपा मुखिया के पैर छुते हुए फोटो खिंचवायी थी। जिसे फेस बुक पर पोस्ट कर दिया था। )अखिलेश यहीं नहीं रूके उन्होंने कहा कि आप तो जानते ही हैं कि सोशल साइट पर फोटो डालने पर बसपा की एक प्रत्याशी का क्या हाल हुआ।  यह सिर्फ समाजवादी पार्टी ही है जिसमें आप मेरे साथ सेल्फी खिंचवा सकते हैं, लेकिन थोड़ी ही देर में वह अपनी बात से पलट गये। शायद उनके दिलो-दिमाग में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा आ गया होगा।  इस लिये दूसरे ही पल पीएम पर परोक्ष रुप से हमला करते हुए मुख्यमंत्री कहने लगे कि भाजपा ने सेल्फी नाम की एक नई बीमारी फैला रखी है। माया के मुलायम पर वॉर के बाद अखिलेश ने एक बार फिर बेटे का फर्ज निभाते हुए मायावती पर पलटवार करते हुए कहा कि वे(मायावती)तो चार बार मुख्यमंत्री रही हैं। उन्हें तो अच्छे से पता होगा है कि पैसा कहां से आता है, लेकिन उनको यह पता होना चाहिए कि ‘नेताजी’ का जन्मदिन उनके बेटे ने मनाया । पार्टी फंड से खर्च हुआ। इसमें सरकारी कंटीजेंसी फंड का दुरूपयोग नहीं हुआ। सरकारी संसाधन भी नहीं लगे, जैसा की वह अपने जन्मदिन पर करती हैं। ऐसे में सवाल यही उठता है कि जब सीएम अखिलेश को पता है कि माया राज में सरकारी कंटीजेंसी फंड का दुरूपयोग किया गया था, तो उन्होंने चार वर्ष हो गये और अभी तक इस मामले की जांच क्यों नहीं कराई। क्या वह मायावती पर कोई उपकार कर रहे हैं।
    खैर, समाजवादी नेता कहें कुछ भी लेकिन सच्चाई यही है कि 2012 के विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान मायावती को लेकर समाजवादी पार्टी के नेताओं ने जो-जो घोषणा की थी, उसमें से एक भी पूरी नहीं हुई है।  न तो मायावती के कार्यकाल के भ्रष्टाचार की सपा सरकार ने कोई जांच ही कराई न ही प्रचार के दौरान चीख-चीख कर, ‘सपा सरकार बनी तो मायावती जेल में होंगी। ’का दावा करने वाले तत्कालीन समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव माया को जेल भिजवा पाये। अखिलेश सरकार ने माया राज के भ्रष्टाचार की एक भी फाइल नहीं खोली। माया ही नहीं मायावती के भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ भी कोई मामला नहीं चलाया गया। उलटे मायावती मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कार्यशैली पर प्रश्न चिंह लगा रही हैं। यादव सिंह का भ्रष्टाचार, लोकायुक्त का मामला, यूपीएसएससी के अनिल यादव का मसले पर बसपा अखिलेश सरकार को समय-बेसमय घेरती रहती है। माया सवाल करती हैं कि भ्रष्टाचार के उक्त मसलांें पर सीएम ने समझौता क्यों किया।  वह यादव सिंह के भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच नहीं कराने के अखिलेश सरकार के फैसले पर प्रश्नचिंह लगाती है।  समाजवादी नेता माया को पार्को के बहाने घेरते रहे हैं, लेकिन अभी से मायावती ने घोषणा कर दी कि अबकी से सत्ता में आने पर न तो कहीं पार्क बनेगा, न किसी पार्क का विस्तार होगा।  
    बात मायावती की चुनावी दांवपेंच की कि जाये तो वह जानती हैं कि कानून व्यवस्था के मुद्दे पर समाजवादी सरकार को घेरना काफी आसान ही नहीं चुनावी लिहाज से फायदेमंद भी है।  2007 के विधान सभा चुनाव में इसी मुद्दे के सहारे माया ने सत्ता हासिल की थी। प्रदेश में कानून व्यवस्था का इस समय जो बुरा हाल है उसको देखते हुए मायावती 2017 में भी इस मुद्दे को खूब हवा-पानी देती दिख रही हैं।  वह 2010 में अयोध्या विवाद को लेकर होईकोर्ट की लखनऊ बैंच के फैसले और उस समय पूरे प्रदेश में कहीं भी कानून व्यवस्था नहीं बिगड़ने को अपनी कामयाबी बताते हुए कहती हैं कि लॉ एंड आर्डर कैसे कायम किया जाता है यह उन्हें पता है। हाईकोर्ट के फैसलें से समय अगर प्रदेश में समाजवादी सरकार होती तो हालत कैसे हो जाते इसकी कल्पना की जा सकती है।  माया तो 2017 की जंग में समाजवादी पाटी्र को मुकाबले में ही नहीं मानती हैं। उनका साफ कहना है कि उनकी लड़ाई समाजवादी पार्टी नहीं बीजेपी से है। वह अपने ओ बीजेपी के मुकाबले खड़ा करके मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती हैं। इसी रणनीति के तहत माया ने इस बार बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिया है। अबकी से बसपा सामान्य सीट पर किसी दलित नेता को मैदान में नहीं उतारेगी। इसकी बजाये मुस्लिमों और गैर यादव पिछड़ों को सामान्य सीट पर उम्मीदवार बनाया जायेगा।
    बात कांग्रेस की कि जाये तो सरकार बनाने का दावा तो कांग्रेसी भी कर रही है, लेकिन सिर्फ सार्वजनिक मंच पर। अंदरखाने की हकीकत यही है कि कांग्रेसियों को नहीं लगता है कि वह लम्बी रेस के घोड़े हैं। कांग्रेसी तो दबी जुबान यह भी कहते हैं कि अगर कांग्रेस का कोई प्रत्याशी जीतेगा भी तो इस जीत में पार्टी से अधिक रोल उसका अपना रहेगा। कांग्रेस में टिकट के लिये मजबूत दावेदारों का भी टोटा बना हुआ है।  राहुल गांधी तमाम कोशिशों के बाद भी प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष मे माहौल नहीं बना पा रहे हैं।

लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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