मनोज कुमार
तारीख, तीस जनवरी। साल भले ही अलग अलग हों किन्तु भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण तारीख है। इस दिन शांति एवं अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की नृशंस हत्या कर दी गई थी और इसी तारीख पर दादा माखनलाल ने अंतिम सांस ली थी। गांधीजी और माखनलाल जी का हमारे बीच में नहीं रहना ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई शायद कभी न हो पाये। यह सुखकर है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में जो आदर्श स्थापित किया, भारत को एक नयी दृष्टि दी और देश के प्रति लोगों में जो ऊर्जा का संचार किया, वह उनकी उपस्थिति दर्ज कराती रहेगी।
भारत वर्ष हमेशा इस बात के लिए हमारे उन पुरखों का कर्जदार रहेगा जिन्होंने हमें पराधीनता से मुक्त कराया। समय-समय पर हम उन सबका स्मरण इसलिए करते हैं ताकि नयी पीढ़ी को इस बात का ज्ञान रहे कि हमारे पुरखों के पास अदम्य साहस था, दृष्टि थी और आत्मविश्वास। साथ में था देशभक्ति का एक ऐसा गुण जो हर भारतीय के लिए कल भी जरूरी था और आज भी है और जब तक यह धरती है, जरूरत बनी रहेगी। छोटी-छोटी बातों को लेकर, सम्प्रदाय और सीमा को लेकर जो बहस और अनबन बनी रहती हैं, वह शायद भारत की प्रकृति नहीं है और हम सब भारत की प्रकृति के प्रतिकूल आचरण कर रहे हैं। इन्हीं सब बातों को एक नई दृष्टि से देखने और समझने के लिए अपने पुरखों का स्मरण करना जरूरी हो जाता है।
यूं तो भारत 15 अगस्त 1947 को ही अंग्रेजी राज्य से मुक्त हो गया था लेकिन सच तो यह है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हम मानसिक दासता के शिकार हैं। हमारी मन की खिड़कियों को हम खोल नहीं पाये हैं। आज भी हमारा व्यवहार और सोच का जो ढंग है, वह 16वीं, 17वीं शताब्दी के समय से भी ज्यादा सकीर्ण दिखता है। कहने के लिए हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पहरूये हैं लेकिन हम जिस दिशा में बढ़ रहे हैं, वह हमारी लोकतांत्रिक परम्पराओं को आघात पहुंचाते हुए दिखता है। महात्मा गांधी का सत्याग्रह का सीधा अर्थ था सत्य के प्रति आग्रह लेकिन हम इस सत्याग्रह से दूर हो चुके हैं। सत्य के प्रति हमारा आग्रह का कोई भाव बचा ही नहीं बल्कि असत्य के प्रति हमारा अनुराग बढ़ा है। हमारा यही विचार और यही व्यवहार नवागत पीढ़ी को हस्तांतरित हो रहा है जिसमें खुलेपन की जगह उच्चश्रृंखलता का भाव दिखता है। इसका उदाहरण कुछ साल पहले तब देखने को मिला जब पहली बार एक छोटी बच्ची ने सूचना के अधिकार के जरिए सवाल पूछा था कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा किस कानून के तहत दिया गया? यह सवाल चौंकाने वाला नहीं बल्कि पूरे देश को शर्मसार करने वाला था। आजादी का मतलब उच्चश्रृंखलता नहीं और आज हमारे देश में आजादी का अर्थ यही लगाया जा रहा है।
यह समय कठिन होता जा रहा है। संचार के साधनों में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ विचार प्रवाहमान हुए हैं लेकिन ज्यादतर समय अनियंत्रित होकर। अखबारों से आरंभ हुई पत्रकारिता रेडियो और इसके बाद टेलीविजन से होते हुए संचार के नए साधनों तक पहुंची जिसे सोशल मीडिया पुकारा गया। पत्रकारिता नेपथ्य में पहुंच गई और मीडिया ने पूरा कब्जा कर लिया। गांधीजी ने स्वाधीनता आंदोलन के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाया था और अन्य दिग्गजों के साथ मध्यप्रदेश माटीकुल के सुपुत्र पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने भी कर्मवीर के माध्यम से समाज को जागृत किया। दादा के नाम सुविख्यात माखनलाल की अनेक अमर कालजयी कविताएं हैं जो आज भी मन को उत्साहित करती हैं।
बापू और दादा माखनलाल देशभक्त होने के साथ कलम के सिपाही भी थे। अपनी इस कला का उन्होंने पराधीन भारत को जागृत करने के लिए भरपूर उपयोग किया। इन दोनों महानुभावों की पत्रकारिता पर नजर डाली जाए तो हम पाएंगे कि सीमित संसाधनों में की गई उनकी पत्रकारिता के समक्ष हम अपनी अंगुली भर उपस्थिति दर्ज कराने में नाकामयाब हैं। उनके विचार और उनकी दृष्टि उच्च और व्यापक थी, संकीर्णता रत्तीभर नहीं थी और लेखन में रंज का कोई स्थान नहीं था। देश के बैरियों के लिए उनकी कलम आग उगलती थी लेकिन शब्दों पर संयम और नियंत्रण था। वे रौ में बहकर नहीं लिखते थे बल्कि जोश में लिखते थे।
तारीख, 30 जनवरी के बहाने जब हम इनका स्मरण कर रहे हैं तो इस बहाने आज की पत्रकारिता पर दो बातें कर लेना गैर-जरूरी नहीं होगा। एक तो यह कि जब हम आज बात कर रहे हैं तब पत्रकारिता शब्द विलोपित हो चुका है और मीडिया की चर्चा कर रहे हैं। दुर्भाग्य की बात है कि जैसे-जैसे मीडिया का विस्तार हो रहा है, हम संसाधनों में तो धनी और सम्पन्न हो रहे हैं किन्तु विचारों की दृष्टि से कुछ कमजोर। इससे भी आगे हैरानी की बात यह है कि जिन लोगों ने वर्षों पत्रकारिता को जिया और समाज में पत्रकारिता के कारण अपना स्थान बनाया, वे भी पत्रकारिता में आयी गिरावट या क्षरण का रोना रोते दिखते हैं। जिनके कंधों पर समाज की जवाबदारी हो और वही रोता-बिसूरता दिखे तो समाज किससे अपेक्षा खत्म नहीं हो जाएगी? जिस देश में महात्मा की पत्रकारिता अंग्रेजों को देश छोडऩे के लिए मजबूर कर देती है, उस देश में पत्रकारिता के लिए विलाप कोई अच्छी बात नहीं है। मेरी व्यक्तिगत समझ कहती है कि पत्रकारिता से हम हैं तो हमें अपना घर खुद ठीक करने की पहल करनी होगी। पत्रकारिता की नयी पीढ़ी अगर पत्रकारिता की शर्तों पर खरी नहीं उतर रही है तो हमें प्रशिक्षण के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना होगा। आखिरकार जिस पत्रकारिता ने हमें सबकुछ दिया, उसे बनाये रखने के लिए कौन पहल करेगा? दादा माखनलाल लिखते हैं कि धनिकों के हाथों में न तो पत्र सुरक्षित रहता है और न पत्रकारिता। ऐसे में हम सबको तारीख 30 जनवरी को इस मायने में सार्थक बना देना चाहिए जब हम अभियान के तौर पर न सही, अपने अपने स्तर पर महात्मा, पराडक़र, विद्यार्थी, सप्रे, दादा माखनलाल आदि-इत्यादि के बनाये रास्ते पर चलने के लिए नयी पीढ़ी को प्रेरित करने का संकल्प लें।
विलाप पत्रकारिता की शुचिता का कोई मार्ग नहीं है और न ही समाज और देश की बेहतरी इससे हो सकती है। पोल-खोल की पत्रकारिता के इतर सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता भारतीय समाज की आवश्यकता है। अरबों की जनसंख्या वाले देश में करोड़ों के पास साफ पीने का पानी नहीं, इलाज की सुविधा नहीं, शिक्षा के नाम पर केवल लीपापोती और ऐसी अनन्य समस्याओं से दो-चार होते इस देश को कोई दिशा दे सकता है तो वह पत्रकारिता है और पत्रकारिता स्वयं विलाप करे, यह उचित नहीं है। पत्रकारिता नये दौर में है, उसके समक्ष नई जिम्मेदारियां हैं और वह आधुनिक संसाधनों से लैस है। ऐसे में हम सब मिलकर पत्रकारिता को वह स्वरूप दें जिसमें उसकी सामाजिक सरोकार, जवाबदारी और पत्रकारिता का धर्म निभ सके।
मनोज कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया विश्लेषक
मोबा 9300469918
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