वो दिन लद गए जब प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थी अपना सामान्य ज्ञान ही नही व्याकरण भी सुधारते थे। यूं कहिए अखबारों पर उनकी निर्भरता कुछ ज्यादा हुआ करती थी । आज अगर अखबार के भरोसे रहे प्रतियोगी परीक्षा क्या घरेलू परीक्षा में भी " लुटिया " डूबनी तय है। पहले एक शहर से एक दो ही अखबार निकला करते थे आज अखबारों की "सुनामी" आ गई है। किसी भी दिन का अखबार उठा लें एक ही समाचार को अलग अलग ढंग से परोसते हैं अखबार। ऐतराज प्रस्तुतिकरण पर नहीं उसकी भाषा पर है।
माना कि बिना अर्थ के शब्द का कोई अस्तित्व नहीं । धोनी को धौनी और खंडूरी को खंडूडी (इस फांट में नीचे की बिंदी नहीं लग पा रही है) लिखिए पाठकों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडने वाला। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ए की जगह ऐ का इस्तेमाल ज्यादा होता है मसलन मेडिकल की मैडिकल , नेशनल की जगह नैशनल गोवंश की जगह गौवंश आदि आदि। हद तो तब हो गई जब एक इश्तिहार में पेट दर्द की जगह पैट दर्द की दवा लिखा था। प्रेम चंद से बडा शायद ही कोई साहित्यकार रहा हो । उनका मशहूर उपन्यास गोदान था तो क्या हम उसे गौदान के नाम से जाने? अब सवाल यह उठता है कि पूरब और पश्चिम के लिए अलग अलग व्याकरण हो अलग अलग शब्दकोष हो। एक ही प्रदेश में दर्जनों बोली तो हो सकती है शायद भाषा नहीं।
अब एक नजर अखबारों पर। अमर उजाला मोर्चा को मोरचा , पर्दा को परदा लिखता है । तो दैनिक जागरण के हाल ही निराले हैं । इस अखबार के लिए बडी ई का कोई खास मतलब नहीं है । यह अखबार सीबीआई को सीबीआइ लिखता है। कुछ ऐसा ही आरोपी और आरोपित को लेकर है। देहरादून से चार बडे अखबार छपते है। दैनिक जागरण इन्कार लिखता है तो अमर उजाला इंकार तो राष्ट्रीय सहारा इनकार । वैसे राष्ट्रीय सहारा की वर्तनी कभी भी एक नहीं रही। तीन चार साल पहले यह अखबार घेराव की जगह घिराव , दरोगा , बरात, फैक्टरी लिखता था । अब फिर से घेराव, दारोगा और फैक्ट्री हो गया। यही नहीं इसके किसी पेज पर रुपए लिखा जाता है तो किसी पेज पर रुपये होता है। यही हाल सर्राफा और सराफा पालीथीन और पालीथिन, टेक्नोलॉजी टैक्नालाजी का है। कुछ विशेष पाठक वर्ग को ध्यान में पेज निकालते हैं। ऐसे ही एक विशेष पेज का नाम पहले ९४ से ९८ के आसपास कैरियर था अब ऐसी ही सामग्री वाले पेज का नाम (मास्टहेड) करियर हो गया क्यों ? क्या इसे अपनी ढपली ,अपना राग कहें ।
आमतौर पर होता यह है कि हम गलत इसलिए लिखते हैं कि हम गलत बोलते हैं । बोली और भाषा अलग अलग चीजें हैं। अज्ञानता या आदतन कुछ लोग अमरूद को अरमूद बोल देते हैं इसका मतलब यह नहीं कि अरमूद लिखें। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो रहा है। किसी अखबार में गेट टुगेदर की जगह गैट टू गैदर पढने को मिला। शब्दकोष प्रचलित शब्दों का भंडार होता हैै । इसमें एक शब्द को अलग अलग लिखा गया दर्शाया जाता है । लेकिन व्याकरण के साथ ऐसा नहीं है। शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार ने १९६१ में हिंदी वर्तनी की मानक पद्धति निर्धारित करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति नियुक्ति की थी ।
इस समिति ने १९६२ में अपनी रपोर्ट दी। इसके विस्तार में जाना यहां संभव नहीं है। इस समिति की रिपोर्ट सरकारी कार्यलयों में लागू है। अगस्त सितंबर १९६२ में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली द्वारा वैज्ञानिक शब्दावली पर आयोजित संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी लिपियांतरण के संबंध में की गई सिफारिशे उल्लेखनीय हैं। उसमें कहा गया है कि अंग्रेजी शब्दों की देवनागरी लिपियांतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि अनेक नए संकेत चिह्न लगाने पडे। कहने का मतलब यह कि जब हर सरकारी कार्यालय की वर्तनी एक हो सकती है । प्रदेश के अलग अलग हाईकोर्टो की दंड संहिता (अवकाश नहीं) एक हो सकती है तो अखबारों की क्यों नहीं ?
विभा "अरुण"
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