Jan 15, 2016

नेहरू द्वारा लिखित 'भारत की खोज' में भारत के बारे में तमाम गलत तथ्यों को रखा गया : अनंत विजय

प्रवक्ता.कॉम द्वारा आयोजित संगोष्ठी 'साहित्य में भारतीयता की अवधारणा'


नईदिल्ली। प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर प्रवक्ता डॉट कॉम व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (NBT) के सौजन्य से ‘साहित्य में भारतीयता की अवधारणा' विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में सूर्यास्त्र द्वारा प्रकाशित शाहज़ाद फ़िरदौस के शोध उपन्यास 'व्यास' के हिंदी संस्करण का लोकार्पण भी किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता केन्द्रिय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के कुलपति श्री कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने की और कहा कि भारतीयता अंदर से निकलती है और हमें एहसास कराती है कि हम खुद को कितना भी बदल ले, विदेश चले जाये, बेशक नागरिकता बदल लें, लेकिन जब भारत में कुछ होता है तो जो ह्रदय से भारतीय हैं उनका मन बेचैन हो उठता है, यही भारतीयता है। उन्होंने एक संदर्भ देकर बताया कि भारतीय कहीं भी रहें लेकिन उनके चेतन में जो समाहित हो चुका है उसे उनके अंतर्मन से हटाया नही जा सकता। आज साहित्य में भी इसी बात की जरुरत है कि साहित्य रचते समय उसमें भारतीयता के भाव को समाहित किया जाय। बिना भारतीयता का समावेश किये कोई भारतीय साहित्य नहीं लिखा जा सकता है।


मुख्य वक्ता के रूप् में बोलते हुए वरिष्ठ साहित्यकार व दिल्ली विश्वविधालय से रिटायर्ड प्राफेसर डा सुंदर लाल कथूरिया ने कहा कि पहले भारतीय दर्शन में लोगों की आकांक्षा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष में होती थी, अंतत: जीवन का लक्ष्य मोक्ष ही होता था, और तब जीवन कर्म प्रधान था। परन्तु आज समाज अर्थ और काम के पीछे भाग रहा है और धर्म, कर्म और मोक्ष कहीं पीछे छूट रहा है। वर्तमान में जो साहित्यकार हैं वो भारतीय दर्शन के मूल को भूल कर दलित और नारी विमर्श के नाम पर भारतीयता का मजाक उड़ाते हैं, दुष्प्रचार करते हैं; जबकि सच्चाई ये है कि भारतीय दर्शन में ज्ञान सर्वोपरि रहा न कि जाती और इसी का परिणाम है कि तुलसी, कबीर, जायसी, रसखान, रहीम, मीरा आदि कवि इसी भारतीय समाज में प्रतिष्ठित हुए। नारी विमर्श में भी भारतीय समाज हमेशा सबसे आगे रहा, मनुस्मृति का यह श्लोक "यत्र नारी पूज्यते रम्यते तत्र देवता" इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।

कार्यक्रम में वक्ता के तौर पर बोलते हुए दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक रंजन मुखर्जी ने कहा कि भारतीय प्रतीकों को व्यवहारिकता में लाने की जरुरत है, जैसे रामायण एवं महाभारत आदि महाकाव्यों की कथाओं व चरित्रों को सार्वजनिक स्थलों में प्रतीक रूप में प्रदर्शित व प्रचारित करने की जरुरत है जिससे नई पीढ़ी अपने महान इतिहास से जुड़ सके। श्री मुखर्जी ने लोकार्पित उपन्यास 'व्यास' पर बोलते हुए कहा कि शाहज़ाद फ़िरदौस जो कि ‘व्यास’ नामक कृति के लेखक हैं उन्होंने एक असाधारण काम किया है। इन्होंने महाभारत के रचयिता और वेद के संकलनकर्ता वेद-व्यास पर एक प्रमाणिक कार्य किया है वे अपने जीवन के बारह साल की कड़ी मेहनत के बाद उस शोध को उपन्यास का रूप दिया है। आज समाज को ऐसे फ़िरदौस की जरुरत है जो हमारे भारतीय प्रतीकों एवं महापुरुषों को नई पीढ़ी से रूबरू करा सके। आज भारतीय साहित्य में भारतीयता पर और अधिक शोध करने की आवश्यकता है। अगर हम अपने धार्मिक ग्रन्थों को शोध विषय के रूप में रखेंगे तो न सिर्फ देश की तरक्की होगी बल्कि भारतीयता भी सामने आयेगी।

कार्यक्रम में वक्ता के रूप में बोलते हुए सुप्रसिद्ध आलोचक अनंत विजय ने कहा कि शुरू से ही हिन्दी साहित्य को दोयम दर्जे का माना गया है। इसे खत्म करने का प्रयास 1921 में ही शुरू हो गया था जब भारतीय साहित्य की तुलना बौद्ध दर्शन से करके इसे कमतर आंकने का प्रयास किया गया। उसके बाद नेहरू द्वारा लिखित 'भारत की खोज' में भारत के बारे में तमाम गलत तथ्यों को रखा गया और उसे प्रचारित किया गया। रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित 'संस्कृति के चार अध्याय' को लेकर भी दुष्प्रचार किया गया और दिनकर को हाशिये पर रखने की साजिश की गयी। उन्होंने कहा कि पूरे विश्व में सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ से बड़ा और महान कोई हिन्दी लेखक नहीं है लेकिन वामपंथी विचारों से प्रभावित आलोचकों ने उनके बारे में यह कहा कि उनका मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है। यही हाल निराला का भी हुआ है, निराला जी का कार्यक्रम था और उनकी कृतियां जिनके लिये वो जाने जाते थे वह प्रकाश में नही आयी। चूँकि ये सभी लेखक भारतीयता की बात करते थे और वामपंथी आलोचकों द्वारा भारतीयता की बात करने वालों को संघी कह दिया जाता है। अगर साहित्य में भारतीयता की बात करना संघी होना है तो फिर देश की सवा सौ करोड़ आबादी ही संघी है।

संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए 'व्यास' उपन्यास के लेखक शाहज़ाद फ़िरदौस ने कहा कि वो उस क्षेत्र से आते हैं जो कि मिश्रित क्षेत्र है और जहाँ उन्होंने जन्म लिया वहां हिन्दू मुस्लिम में मतभेद आम बात है, पर वो हमेशा जमीन से छः फूट ऊपर देखने की कोशिश की, जहाँ से सिर्फ पेड़, बादल, आकाश, आदि दिखते हैं। वो हमेशा कुछ अलग करना चाहते थे, उन्हें खुशी है वो ऐसा कर सके, आज उनकी कृति इस किताब की शक्ल में सबके सामने है। उन्होंने कहा कि मन साफ है और पूरी कोशिश है कि भारतीयता के उस क्षण को पिरोया जाय जो उस काल के समय महसूस की गयी होगी। फ़िरदौस के अनुसार कई वर्षो जंगलों में अध्ययन करने के बाद यह संभव हो पाया, उम्मीद है कि लोग इस कृति ‘व्यास’ को पसंद करेगें, इससे पूर्व उन्होंने बुद्ध पर भी शोध कार्य किया, जो 'तथागत' नाम से टेली-फिल्म के रूप में बनी और दूरदर्शन पर दिखाई गयी।

इस संगोष्ठी का संचालन साहित्यकार अलका सिन्हा ने किया व सभी आये हुए अतिथियों का स्वागत प्रवक्ता डाट काम के संस्थापक व प्रबंध सम्पादक भारत भूषण ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन संपादक संजीव सिन्हा ने दिया। कार्यक्रम में एन.सी.ई.आरटी. के सलाहकार अम्बाचरण वशिष्ठ, दिल्ली पत्रकार संघ के अध्यक्ष अनिल पाण्डेय, भाजपा नेत्री अनुश्री मुखर्जी, आकाशवाणी से अलका सिंह, निगम पार्षद अरविन्द गर्ग, आदित्य झा, आशीष अंशु, शिवानंद द्विवेदी सहर सहित तमाम गणमान्य लोग उपस्थित रहे।

प्रेस रिलीज

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