Jun 3, 2016

प्रकृति, विकृति और संस्कृति

कमलेश पाण्डेय

11 अशोक रोड, नई दिल्ली भाजपा का केंद्रीय मुख्यालय है। विगत दो वर्षों से यह सत्ता का केंद्र भी है। वैसे तो 1998 से 2004 तक भी यह सत्ता का केंद्र विंदू था, लेकिन मौजूदा दूसरी पारी की बात ही कुछ और है। पार्टी मुख्यालय के कायाकल्प का जो बीड़ा पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उठाया था, मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उसे लगभग पूरा कर दिया है। इससे कार्यकर्ताओं और नेताओं को बहुत सुकून मिला है। पत्रकारों और समाजसेवियों को तो और भी ज्यादा!


सबसे अनोखी बात तो यह है कि यहाँ के कैफेटेरिया एरिया यानि कि कैंटीन में प्रकृति, विकृति और संस्कृति को बड़े ही सरलता पूर्वक समझाया गया है जो कि एकात्म मानववाद के प्रणेता और पार्टी के विचार पुरूष पंडित दीन दयाल उपाध्याय की सुप्रसिद्ध उक्ति है, वह निम्नलिखित है- "भूख लगना प्रकृति है। छीनकर खाना विकृति है और बांटकर खाना संस्कृति है।" इस उक्ति का चयन जहां पार्टी मुख्यालय प्रबंधन के उदात्त सोच को अभिव्यक्त करता है, वहीं यह सन्दर्भ वाक्य यहां रोजाना आने वाले हजारों लोगों का ह्रदय परिवर्तन भी जरूर करता होगा, ऐसा मेरा मानना है। इससे स्पष्ट है कि देश राजनीतिक युग परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है और सत्तारूढ़ दल का नैतिकता जगाओ अभियान जारी है।

सच कहा जाय तो यह उक्ति समस्त सनातन संस्कृति (हिंदुत्व) को बेहद सरल और सहज ढंग से अभिव्यक्त करने को काफी है। खुद को 'पार्टी विथ डिफरेंस' करार देने वाली बीजेपी को समझने के लिए भी उक्त वाक्य ही पर्याप्त है और इसके लिए हमें "भय, भूख और भ्रष्टाचार" मिटाने वाले वाजपेयी युगीन नारे अथवा "सबका साथ, सबका विकास" चाहने वाले मोदी युग के नारे की तह में जाने की जरूरत कतई नहीं है। तो फिर सवाल वही मौंजू है कि जब पार्टी नेतृत्व की सोच इतनी उदार/अच्छी है तो फिर वह 'विरोधाभास' कहाँ निहित है- समाजवाद/पूंजीवाद में, या क्षेत्रवाद/राष्ट्रवाद में, या फिर जातिवाद/सम्प्रदायवाद में, या फिर कहीं और, जिससे कि पार्टी जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप उम्दा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है? यही नहीं, संभव है कि इस देश की "लोकतांत्रिक परिस्थितियों" और "संवैधानिक व्यवस्था" में ही कुछ ऐसी "खामियां" मौजूद हैं जिसने न केवल बाजपेयी जी के सुनहरे सपनों पर तुषारापात किया, बल्कि मोदी जी के अरमानों पर भी पानी फेर रहा हो, और जिसका पता हमें 2019 के जनादेश मिलने के बाद ही चले!

इस बात में कोई दो राय नहीं कि अपना विशाल लोकतांत्रिक देश आजादी के बाद से ही एक साथ दो मोर्चे पर, मतलब कि आंतरिक और बाह्य (अंतर्राष्ट्रीय) चुनौतियों से जूझ रहा है। अबतक के अनुभव के आधार पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन 'नैतिक आदर्शों' को हमलोग अपनी ताकत मानकर चल रहे हैं, कमोबेश वही हमारी कमजोरियां/मजबूरियां साबित हो रहीं हैं और आंतरिक/वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हमलोग निरन्तर पिछड़ते जा रहे हैं।

हमारा इशारा 'बहुदलीय/बहुमतीय लोकतंत्र की नपुंसकता' और 'पंथनिरपेक्षता/गुटनिरपेक्षता के अव्यवहारिक सिद्धांतों' की ओर है जिसका कारगर उपाय हमारा नेतृत्व अबतक नहीं ढूंढ पाया है जो कि चिंता की बात है। यह कौन नहीं जानता कि एक राष्ट्र के रूप में भारत का पुनर्जन्म और पाकिस्तान का जन्म 'सम्प्रदाय आधारित द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांतों' के अनुरूप हुआ है, लेकिन अकसर हमारा नेतृत्व इस कड़वी सच्चाई से मुंह मोड़ लेता है और पंथनिरपेक्षता/धर्मनिरपेक्षता का डपोरशंखी राग अलापता रहता है, जबकि हमारे 'पड़ोस' में ऐसा नहीं होता?

कहने को तो हमारा मुकाबला पाकिस्तान और चीन जैसे कुटिल और जटिल देशों से है जहां परोक्ष/प्रत्यक्ष रूप से 'सैनिक' और 'साम्यवादी' नितिनियन्ताओं का बोलबाला है, लेकिन हमारा देश तो आज भी 'घात-प्रतिघात वाली राष्ट्रविरोधी राजनीति' से जूझते हुए प्रकृति, विकृति और संस्कृति का पाठ पढ़-पढ़ा रहा है। वह खुद को "विश्वगुरू" और "सोने की चिड़ियाँ" समझकर आह्लादित होता रहता है जो कि दुर्भागयपूर्ण है। यह अतीतजीविता हम सबके लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है।

आखिरकार हमलोग यह कब समझेंगे कि एक तरफ जहां देश विरोधी ताकतें निरन्तर अपना रणनीतिक विस्तार कर रहीं हैं, वहीं पर हम सभी 'क्रांति पाठ' करने की बजाय उसी सनातनी 'शांति पाठ' को करने के लिए अभिशप्त हैं जिसकी वजह से ही हमने सदियों तक गुलामी की असह्य पीड़ा भी झेली है। सवाल है कि आखिरकार हमलोग सचेत कब होंगे? क्योंकि मौजूदा विधायी, कार्यपालिक (प्रशासनिक), न्यायिक और मीडियाई परिवेश के संवैधानिक उधेड़बुन में रहते हुए हमलोग समवेत रूप से अपना राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कायाकल्प कर पाएंगे, इसमें मुझे संदेह है।

वजह स्पष्ट है। वह यह कि विगत सात-आठ दशकों के कागजी/कानूनी मकड़जाल में फंसकर के हमलोगों ने अपने परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों/परम्पराओं को खोया अधिक है और पाया कम! दरअसल जिन आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति/परिवेश को हमलोगों के ऊपर बरास्ता संसद/विधानमंडल, जाने-अनजाने में थोपा जा रहा है, हम और हमारे संस्कार उसके काबिल हैं ही नहीं। जिससे अपने समाज में कई प्रकार विरोधाभास जन्म ले रहे हैं जो अंततोगत्वा हमारे राष्ट्रवाद को ही प्रभावित करेंगे।

कोढ़ में खाज यह कि कांग्रेस और समाजवादी दल जिन परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों/परम्पराओं को तिलांजलि देकर आगे बढे थे, कमोबेश बीजेपी भी अब उनपर ही मुहर लगा रही है। क्या बहुमत प्राप्ति की 'मृगमरीचिका' के निमित्त इसे सराहा जा सकता है? मेरे विचार में तो कदापि नहीं? क्योंकि पिछले लगभग सात-आठ दशकों में पहले जनसंघ और अब भाजपा को जो मजबूती इस देश की आवाम ने दी है, उसके गम्भीर निहितार्थ हैं, लेकिन हमारा नेतृत्वकर्ता वर्ग इस प्रकृति, विकृति और संस्कृति को कितना समझ पाया है, यह देखना और इंतजार करना दिलचस्प होगा।

(लेखक Kamlesh Pande वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार हैं)
kamleshforindia@gmail.com

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