अजय कुमार, लखनऊ
न तो सभी दाग अच्छे होते हैं, न सभी
दाग बुरे। अच्छाई-बुराई आदमी की सोच में होती है। हो सकता है जिस दाग को
सब खराब समझते हों वह आपको अच्छा लगता हो और जो दाग आपको खराब लगता हो वह
सबको अच्छा लगता हो। अब अखिलेश यादव को ली ले लीजिये,‘ उन्हें बाहुबली डीपी
यादव और अतीक अहमद के ‘दाग’ तो खराब लगते हैं लेकिन अंसारी बंधुओं के दामन
पर लगे ‘दाग’ उन्हें हैरान-परेशान नहीं करते हैं। इसी लिये कुछ वर्ष पूर्व
दागी/बाहुबली डीपी यादव को पार्टी में शामिल किये जाने पर भड़कने वाले और
हाल ही में दागी/बाहुबली अतीक अहमद के एक मंच पर अपने पास आता देख उन्हें
धक्का दे देने वाले अखिलेश यादव को दागी/बाहुबली अंसारी बंधुओं के समाजवादी
पार्टी से हाथ मिलाने में कोई परेशानी नहीं होती है।
पहले अंसारी
बधंओं के सपा के करीब आने से नाराजगी और चौबीस घंटे के भीतर ही यूटर्न लेने
वाले अखिलेश यादव के बदले स्वभाव ने उनके चाहने वालों को काफी निराशा किया
है। अब तो अखिलेश के लिये यही कहा जाने लगा है कि बुरी संगत का असर जल्दी
होता है। अच्छी बाते आदमी देर से सिखता है। वर्ना चंद घंटों के भीतर अंसारी
बंधुओं के मामले में अखिलेश यूटर्न न लेते। ऐसा लगता है कि वोट दिलाऊ दाग
उन्हें अच्छे लगने लगे हैं। इसी लिये पार्टी का फैसला सबको मानना चाहिए के
बहाने वह दागियों के साथ खड़े हो गये हैं। इतना ही नहीं,यहां तक कहने लगे
हैं कि मुख्तार का मुद्दा तो मीडिया ने उछाला है। इसे लेकर पार्टी में
मतभेद नहीं है।
समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल के विलय को लेकर
सपा के शीर्ष नेतृत्व के बीच छिड़ा संग्राम सीएम अखिलेश के यूटर्न लेने के
बाद ठंडा पड़ चुका है। इसके साथ यही यह भी तय हो गया है कि अखिलेश की
नाराजगी सियासी ड्रामेबाजी से अधिक कुछ नहीं थी। शायद वह स्वयं भी चाह रहे
थे कि ’सांप भी मर जाये, लाठी भी न टूटे।’ वैसे भी यह बात हजम होने वाली
नहीं थी कि किसी दल का सपा में विलय तक हो जाता है और सरकार में बैठे
अखिलेश यादव (जो उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष भी है ) को इसकी
भनक भी नहीं लगती है। आखिर अखिलेश के पास खुफिया तंत्र से लेकर अपने भी तो
सूत्र होंगे। किसी को इतने बड़े घटनाक्रम की जानकारी नहीं रही होगी, यह कैसे
स्वीकार किया जा सकता है। अगर सीएम को इस बात की जानकारी नहीं थी तो यह
खेदजनक है। इस तरह तो प्रदेश में कोई भी वारदात घट सकती है। बड़ा सवाल यह भी
है कि आखिर जब सीएम को समय पर पता भी चल जाता है तो कौन सी किसी पर
कार्रवाई कर ही देते हैं। हाल ही कि बात है अखिलेश के एक मंच पर बाहुबली
अतीक अहमद की मौजूदगी देखी गई थी। अतीक ने अखिलेश के करीब आने की कोशिश की
तो अखिलेश ने उन्हें धक्का दे दिया,लेकिन अतीक कैसे मंच पर पहुंच गये इसके
लिये कौन जिम्मेदार था,इस मामले में आज तक किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं की
गई। यही कुछ वजह हैं जिस कारण से अखिलेश की नियत पर सवाल खड़े किये जा रहे
हैं।
विपक्ष अंसारी बंधुओं को सपा में शामिल किये जाने पर अखिलेश की
नाराजगी को शुरू से ही ड्रामेबाजी करार दे रहा है। पहले डीपी यादव और अब
मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल किये जाने का विरोध कर रहे सीएम को यह
बात भी नहीं भूलना चाहिए कि 2012 के विधान सभा चुनाव में सबसे अधिक 111
दागी उन्हीं की पार्टी के टिकट से चुनाव जीतकर माननीन बने थे। इनमें से 56
के खिलाफ तो हत्या, अपहरण जैसे गंभीर अपराध में मुकदमा चल रहा था।
ऐसा
लगता है कि पूरबी यूपी में मुस्लिम वोटों पर नजर लगाये सपा प्रमुख मुलायम
सिंह को कौमी एकता दल की ताकत का अंदाजा है। इस बात का अहसास उन्होंने
अखिलेश यादव को भी करा दिया होगा। इसी के बाद अखिलेश के तेवर ठंडे पड़ गये
होंगे।बात अंसारी बंधुओं की सियासी ताकत की कि जाये तो 2009 के लोकसभा
चुनाव में वाराणसी सीट से बाहुबली मुख्तार अंसारी और भाजपा के दिग्गज नेता
मुरली मनोहर जोशी के बीच जर्बदस्त टक्कर हुई थी। जोशी की जीत की राह में
मुख्तार बड़ा रोड़ बन गये थे, मुरली को बमुश्किल जीत हासिल हो सकी थी। यह तब
हुआ था जब ऐन वक्त पर बिना किसी तैयारी के मुख्तार चुनाव मैदान में कूदे
थे। 2012 के विधान सभा चुनाव में भी कौमी एकता दल को अच्छे खासे वोट मिले
थे और उसके दो प्रत्याशी चुनाव जीतने में भी सफल रहे थे।
कल तक लगता था
कि समाजवादी पार्टी युवा मुख्यमंत्री की सौम्य छवि और विकासवादी राजनीतिक
सोच के सहारे चुनाव में उतरना चाहती है लेकिन अब लगता है कि सपा के
बुजुर्ग नेताओं को अखिलेश की विकासवादी सोच पर ज्यादा भरोसा नहीं है।
वरिष्ठ सपाई नेता जिस तरह पुराने बदनाम सहयोगियों और आपराधिक छवि वाले
लोगों को पार्टी में वापस लाने में जुटे हैं, उससे तो यही लगता है कि
समाजवादी पार्टी अपनी 2007 वाली छवि को लेकर ही 2017 के विधानसभा चुनाव में
उतरना चाहती है। पिछले चुनाव के वक्त डीपी यादव को और हाल ही में अतीक
अहमद को अखिलेश अपने बल पर सपा से दूर रखने में कामयाब रहे थे, उन्हीं
अखिलेश के तीखे विरोध को अंसारी बंधुओं के मामले में मुलायम ब्रिगेड ने
पूरी तरह से नकार दिया।अखिलेश टूट गये और बाप-चाचाओं के सुर में सुर मिलाने
लगे। अंसारी बंधुओं के सपा के साथ आते ही 2017 में होने वाले विधान सभा
चुनाव में पार्टी में मौजूद बदहवासी का कुछ अंदाजा मिलना शुरू हो गया है।
हो सकता है कुछ दिनों के भीतर ऐसे कुछ और फैसले लिये जायें और अखिलेश मुंह
भी नहीं खोल पायेंगे। हो सकता है अंसारी बंधुओं से नाता जोड़ने से पूरब की
कुछ सीटों पर समाजवादी पार्टी की स्थिति मजबूत हो जाये,लेकिन आम धारणा तो
यही बनेगी,सपा मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिये कुछ भी कर सकती है।
यह
भी हो सकता है कि अभी तक साफ्ट लाइन पर चल रही समाजवादी ने मन बना लिया हो
कि उसकी नैया को मुस्लिम वोटर ही पार लगा सकते हैं। अंसारी बंधुओे से हाथ
मिलाने के दूसरे ही दिन चुनावी महौल को गरमाते हुए अखिलेश सरकार ने
मुसलमानों के लिये एक साथ कई प्रस्तावों को मंजूर देकर अपने इरादे और भी
साफ कर दिये। अखिलेश कैबिनेट ने अल्पसंख्यकों के हितों के नाम पर जो फैसले
लिये हैं उसके अनुसार बीपीएल अल्पसंख्यक अभिभावकों की बेटियों की शादी के
लिए आर्थिक सहायता राशि दस हजार रुपये से बढ़ाकर बीस हजार रुपये कर दी गई
है। ज्यादा से ज्यादा अल्पसंख्यकों को यह सहायता मिले, इसके लिए उनकी आय
सीमा को भी बढ़ा दिया गया है। मदरसा शिक्षकों को समय से सैलरी और अल्पसंख्यक
छात्रों की स्कॉलरशिप और उसके लिए आय सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को भी मंजूर
कर लिया गया हैं।
मदरसा शिक्षकों और कर्मचारियों को समय से वेतन
देने के लिए उत्तर प्रदेश मदरसा (शिक्षकों-कर्मचारियों का वेतन भुगतान)
विधेयक 2016 के प्रारूप को कैबिनेट मंजूरी देते हुए कहा गया है कि मदरसा
शिक्षकों के वेतन की पूरी रकम का भुगतान राज्य सरकार करेगी। अब तक इन्हें
वेतन शासनादेश से मिलता था पर इसमें अक्सर देरी हो जाती थी। अब हर संस्था
को हर महीने की 20 तारीख को बिल जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी को देना
होगा। बिल मंजूर होते ही वेतन खाते में आएगा।इसी तरह से दो लाख की वार्षिक
आय वाले अल्पसंख्यक परिवार के कक्षा नौ और दस के छात्र भी स्कॉलरशिप के लिए
आवेदन कर सकेंगे। अब तक केवल एक लाख रुपये आय वाले परिवार के छात्र ही
आवेदन कर पाते थे। छात्रों को अब स्कालरशिप में 150 रुपये प्रतिमाह (अधिकतम
दस महीने के लिए 1500 रुपये वार्षिक) और भत्ते के रूप में 750 रुपये
एकमुश्त दिए जाते जाएंगे। यानी एक छात्र को कुल 2250 रुपये दिए जाएंगे।
बहरहाल,
अखिलेश सरकार और समाजवादी आलाकमान जिस तरह से फैसले ले रहा है उससे तो यही
लगता है कि न-न करते-करते सपा ने मुस्लिम कार्ड खेलने का मन बना लिया है।
एक बार फिर मुस्लिम वोटों के धु्रवीकरण का प्रयास किया जा रहा है,लेकिन इस
बार समाजवादी पार्टी के लिये राह आसान नहीं लगती है। बसपा भी मुस्लिम वोटों
में सेंधमारी के चक्कर में हैं। इसके लिये उसने बड़ी संख्या में मुस्लिम
प्रत्याशी भी उतारे हैं।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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