२०१७ चुनाव को लेकर शबाब पर पहुँचती राजनीति
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में २०१७ विधान सभा चुनाव को लेकर राजनीति अब पूरे शबाब पर आती दिख रही है. दिन ब दिन घटित हो रहे सियासी घटनाक्रम तो फिलहाल यही संकेत दे रहें हैं! बसपा के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का पार्टी से इस्तीफा, बाहुबली मुख्तार और अफजाल अंसारी के कौमी एकता दल का सपा में विलय, बेनी प्रसाद वर्मा का कांग्रेस छोड़कर फिर सपा की 'शरण' में आना, मुलायम के खास सिपहसालार अमर सिंह का तमाम विरोधों के बावजूद ससम्मान समाजवादी पार्टी में स्थान पाना और बलवंत सिंह रामूवालिया का नाटकीय ढंग से अकाली दल छोड़कर सपा में शामिल होना तथा अखिलेश सरकार में मंत्री बनना अपने आप में इस बात के सूचक हैं कि उत्तर प्रदेश में आगामी विधान सभा चुनाव को लेकर सियासी उठापटक' का दौर धीरे धीरे अब शबाब पर पहुँच रहा है.
यह बात अलग है की इस सियासी शतरंज में सटीक मोहरे पर गोट फिट करने में फिलहाल पलड़ा समाजवादी पार्टी का ही भारी दिख रहा है. नेताओं का झुकाव अन्य राजनीतक दलों के अपेक्षाकृत समाजवादी पार्टी की ओर कुछ ज्यादा ही नज़र आ रहा है. हाला की जोड़ तोड़ की राजनीति हमेसा से ही होती चली आ रही और कोई भी राजनैतिक दल जोड़ तोड़ की राजनीति से अछूता नहीं रहा है संभव है हम आप आने वाले दिनों में इसी तरह कुछ और कद्दावर नेताओं की निष्ठाओं को इस दल से उस दल में 'शिफ्ट' होता हुआ देखें।
हाल ही में बसपा से नाता तोड़ चुके यूपी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस लेख को लिखे जाने के समय तक अपनी भावी रणनीति को उजागर नहीं किया था लेकिन अटकलें साफ हैं कि वे सपा में शामिल होंगें संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है की उन्हें यूपी सरकार में मंत्री पद से भी नवाजा जा सकता है अभी कुछ समय पहले लगभग इसी अंदाज में अकाली दल के नेता बलवंत सिंह रामूवालिया ने भी अकाली दल छोड़कर सपा का दामन थामा था और सपा का दामन थामने पर उन्हें यूपी सरकार में मंत्री बना दिया गया था। गौरतलब है कि रामूवालिया, एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में भी मंत्री पद भी संभाल चुके थे ऐसे में उनका सपा में आकर एक सूबे की राजनीति तक सीमित होना कई सवाल जरूर खड़ा करता रहा लेकिन राजनीति में कब क्या हो कहा नहीं जा सकता!
सच्चाई यह है की २०१७ विधान सभा चुनाव को लेकर हर राजनीतिक दल अपनी अपनी शतरंजीगोटें फिट करने में जुटे हैं ऐसे में मौके की तलास में बैठे दलबदलू नेताओं के लिए भी यही उपयुक्त समय भी है जहाँ सभी प्रमुख राजनीतिक दल २०१७ के विधान सभा चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए गुणा-भाग फिट करने में जुट गए हैं वहीँ मौका परस्त लोग भी इधर से उधर छलांग लगाना शुरू कर दिए हैं! २०१७ के इस चुनाव में 14 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद इस बार यूपी के विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा भी काफी उत्साहित दिखाई दे रही है यही भाजपा जो 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले तक गुटबाजी और टांग खिंचाई की शिकार थी अब दिल्ली आलाकमान की मजबूत पकड़ के चलते २०१७ के विधान सभा चुनाव को अपने पक्ष में करने को आतुर दिख रही है इस बार लोकसभा चुनाव की तरह पार्टी की किरकिरी न हो इसलिये ज्यादातर फैसले दिल्ली से ही लिये जा रहे हैं.
आलाकमान प्रदेश स्तर के नेताओं की एक−एक गतिविधि पर नजर जमाये हुए है पहले तो भाजपा आलाकमान मोदी के चेहरे को आगे करके यूपी फतह करने का मन बना रहा था परंतु बिहार के जख्मों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया है और असम की जीत ने भाजपा को आगे का रास्ता दिखाया है यह तय माना जा रहा है कि यूपी चुनाव में मोदी का उपयोग जरूरत से अधिक नहीं किया जायेगा इसकी जगह स्थानीय नेताओं को महत्व दिया जायेगा यही नहीं असम की तरह यूपी में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) विधानसभा चुनाव के लिये सियासी जमीन तैयार करने में जुटा है भाजपा नेताओं को इस जमीन पर केवल चुनावी फसल उगानी और काटनी होगी!
बहुज़न समाज पार्टी जो की कल तक उत्तर प्रदेश में सत्ता की ओर कदम बढाती दिख रही थी आज दिक्कतों का सामना करती नज़र आ रही है पार्टी सुप्रीमों मायावती भले ही इजहारे बयाँ न करे लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्या ने पार्टी से नाता तोडकर उन्हें तगड़ा आघात पहुँचाया है अब वो सारे गुणा भाग को भूलकर फिलहाल इस उधेड़बुन में जुट गयी हैं की पार्टी विधायकों में कहीं सेंधमारी करने में स्वामी प्रसाद मौर्या सफल न हो जाएँ. इसी के चलते उन्होने शीघ्र ही पार्टी के सारे विधायकों की मीटिंग भी बुला ली है! कांग्रेस में गुलाम नवी के आने के बाद से पार्टी कार्यकर्ताओं के हौसले तो बढे हैं कितु आलाकमान के मन मुताबिक पार्टी में संगठनात्मक मजबूती नहीं बन पा रही है वैसे पार्टी को फ़तेह दिलाने हेतु प्रशांत किशोर भी अपनी टीम सहित काम पर लगे हैं कितु पार्टी के लोग उन्हें डाइजेस्ट नहीं कर पा रहे हैं प्रशांत किशोर चाहते हैं की उत्तर प्रदेश में प्रियंका को प्रोज़ेक्ट किया जाये और इसके लिए पार्टी के शीर्ष नेत्रत्व द्वारा पहल हो क्योंकि प्रियंका के आने से पार्टी को उत्तर प्रदेश में खासा लाभ हो सकता है प्रदेश अध्यक्ष निर्मलखत्री को लेकर भी अटकलों का बाज़ार गर्म है इस तरह लगता नहीं की प्रदेश में कमजोर पड़ी कांग्रेस इस चुनाव में कुछ अच्छा कर पाने की स्थित में है!
चौधरी अजीत सिंह भी मौके की तलास में हैं एक दौर था जब लोकदल पार्टी का यूपी के जाटों पर अच्छा खासा असर था लेकिन समय के साथ अब परिस्थितियां यहां तक बदल चुकी है कि अजित को राज्यसभा में पहुंचने के लिए न सिर्फ लगभग सभी राजनीतिक दलों के दरवाजे खटखटाने पड़े बल्कि इसके बदले उन्हें गठबंधन की शर्तें भी सुननी पड़ी. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से जाटों का रुझान बीजेपी की ओर भी बना है जिसके चलते शायद बीजेपी अब जाट वोटरों के लिए अजीत सिंह की जरूरत नहीं महसूस कर रही है. मुलायम के साथ बढ़ती नजदीकियां जरूर यह संकेत दे रही हैं की संभव है पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए आरएलडी से तालमेल सपा से हो जाए!
हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी बगैर अजित सिंह के सहयोग से पश्चिमी यूपी को फतह कर चुकी है लेकिन उसके पक्ष में जीत का समीकरण मुसलमान और गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण ही बना था। 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में इस समय अजित सिंह की पार्टी के महज 9 विधायक हैं. जाटों की बहुलता वाले यूपी के 12 जिलों की 60 विधानसभा सीटों में उनकी पार्टी निर्णायक भूमिका में रहती रही है. ऐसे में समाजवादी पार्टी अजित सिंह के असर को पूरी तरह से नकार भी नहीं सकती. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अजित का समर्थन निर्णायक भूमिका भी निभा सकता है. बात अगर 2012 के विधानसभा चुनाव की कि जाये तो उस समय समाजवादी पार्टी को 29.13, बहुजन समाज पार्टी को 25.91, भारतीय जनता पार्टी को 15 और कांग्रेस को 11.65 प्रतिशत वोट मिले थे और इन्ही वोटों के सहारे समाजवादी पार्टी 224, बसपा 80, भाजपा 47 और कांग्रेस 28 सीटों पर जीतने में सफल रही थी. कुल मिलाकर देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश अब पूरी तरह 'चुनावी मोड' में आता नज़र आ रहा है. आये दिन हो रहीं तमाम सियासी हलचलें इस बात की गवाही दे रहीं हैं!
Rizwan Chanchal
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