-एच.एल.दुसाध
चार अप्रैल से शुरू होकर 16 मई,2016 तक चले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद जब लगभग डेढ़ महीने के लम्बे इंतजार के बाद 19 मई को जो चुनाव परिणाम आया,उसे देखते हुए कोई सोच नहीं सकता था कि भाजपा उसे कांग्रेस-मुक्त भारत की दिशा में ‘दो कदम और’ के रूप में देखेगी,किन्तु उसने ऐसा किया .असम में विजय सुनिश्चित होते देख भाजपाध्यक्ष अमित शाह ने असम से बाहर चार राज्यों की 500 सीटों पर जमानत जब्त होने और महज 4 सीटों पर विजय जैसी शर्मनाक विफलता से राष्ट्र का ध्यान दूसरी ओर मोड़ने के लिए लिए विक्ट्री चिन्ह बनाकर पांच राज्यों के चुनाव परिणाम को ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की दिशा में एक बड़ा कदम बता दिया.
उनके उस बयान को मीडिया ने संग-संग लपक लिया.फलस्वरूप चैनलों पर चुनावी बहस कांग्रेस-मुक्त भारत पर टिक गयी जो देर रात ही नहीं,अगले दिन तक जारी रही.कांग्रेस-मुक्त भारत की चर्चा छिड़ने के साथ-साथ चार राज्यों में भाजपा की शर्मनाक हार चली गयी पृष्ठ और दिल्ली-बिहार में जीरो साबित हुए मोदी बन गए नए सिरे से हीरो.चुनावी बहस में कांग्रेस मुक्त भारत की केन्द्रीयता के फलस्वरूप पांच राज्यों में भाजपा की 64 के मुकाबले हर राज्य में कुछ-कुछ सीटों के साथ कुल 115 सीटें जीतने वाली कांग्रेस लोगों को अतीत का विषय लगने लगी.लेकिन मोदी एंड क.के कांग्रेस –मुक्त भारत के दावे में कितना दम है,इस बात का जायजा लेने के लिए एक बार पांच राज्यों में भाजपा की सफलता का ठंडे दिमाग से आकलन कर लिया जाय .सबसे पहले असम, जहां की सफलता ने भाजपा कांग्रेस-मुक्त भारत की बात उछालने का नए सिरे से अवसर प्रदान किया है.
असम के विषय में ढेरों लोगों का मानना है कि 15 साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस वहां जीत सकती थी,यदि दिल्ली में बैठा हाई कमान स्थानीय कांग्रेसियों की चाहत का आदर करते हुए शारीरिक और मानसिक रूप से अनफिट व भ्रष्टाचार के लिए बदनाम हो चुके वयोवृद्ध नेता तरुण गोगोई की जगह किसी अन्य को सीएम घोषित करने के साथ बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ से एलायंस करता ,जिसके लिए खुद बदरुद्दीन इच्छा जाहिर कर चुके थे.
अगर यह मेल हो जाता तो भाजपा गठबंधन के 42 के मुकाबले इसे 43 प्रतिशत वोट मिलते जैसा चुनाव परिणाम के बाद दिख रहा है.किन्तु इधर कांग्रेस ने आत्मघाती निर्णय लिया,उधर भाजपा ने उसका सद्व्यवहार करने के लिए असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट को संगी बनाया जिन्होंने क्रमशः 14 और 12 सीटें जीतकर दो तिहाई बहुमत से भाजपा को सरकार बनाने का ऐतिहासिक अवसर सुलभ करा दिया है.यही नहीं बिहार की भूलों से सबक लेते हुए भाजपा ने चुनाव प्रचार के केंद्र में मोदी और शाह को न रखकर कांग्रेस से आये सर्वानंद सोनेवाल और हिमंत विश्व शर्मा तथा अगप के नेता प्रफ्फुल मोहंती को रखा.असमिया अस्मिता के प्रतीक इस तिकड़ी के सहारे, विकास नहीं,जैसा कि भाजपा वाले दावा कर रहे हैं,बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे के सहारे हिन्दू-ध्रुवीकरण का गेम-प्लान अंजाम दे दिया.इस तरह देखा जाय तो असम विजय के प्रमुख नायक मोदी–शाह नहीं,सोनेवाल-शर्मा –महंत रहे.
असम के बाद केरल के तिरुअनंतपुरम जिले के जिस निमोह सिट पर मिली इकलौती जीत को भाजपा की ओर से जोर गले से ‘शानदार जीत’बताया जा रहा है वहां नौ बार लगातार हारने के बाद उसके बुजुर्ग प्रार्थी को जो सफलता मिली है उसे बहुत से राजनीतिक विश्लेषक ‘चुनावी रिटर्न गिफ्ट’ करार दे रहे हैं.बहरहाल चुनाव पूर्व अमित शाह ने केरल में ‘हंग असेम्बली’ का दावा किया था.जाहिर है उनकी पार्टी को किंग मेकर की भूमिका में अवतीर्ण होना था,पर उसकी उपलब्धि एक सिट पर विजय और सात स्थानों दूसरे स्थान पर रहने के साथ 2011 के 6.4 के मुकाबले इस बार 10.33 प्रतिशत वोट प्राप्ति तक सीमित रही .अब जिस कांग्रेस मुक्त भारत के सपने के साकार होने की संभावना भाजपा नेतृत्व जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है,उस कांग्रेस को इस बार केरल में 22 सिटें और 23.8 प्रतिशत वोट मिले.बहरहाल कांग्रेस-मुक्त भारत का उच्च उद्घोष करने के पीछे तीसरा बड़ा योगदान पश्चिम बंगाल में मिली चुनावी सफलता है.किन्तु तरह –तरह के भावनात्मक मुद्दों के साथ मुख्यतः राष्ट्रवाद के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने में माहिर भाजपा ने नेताजी सुभाष बोस के नाम पर राष्ट्रवाद का एक नया गेम प्लान किया.
इसके लिए उसने नेता जी के एक वंशधर को चुनाव में प्रार्थी भी बनाया.किन्तु किन्तु नेताजी के नाम का भरपूर इस्तेमाल करने के बावजूद परिणाम 2011 के एक सिट के मुकाबले तीन सीटों पर विजय तक सीमित रहा.किन्तु इस कथित विराट विजय को यदि लोकसभा चुनाव-2014 में मिले 16.8 प्रतिशत मतों से तुलना की जाय तो भाजपा के हिस्से में लगभग 6.6 प्रतिशत की गिरावट नजर आयेगी .उधर जिस कांग्रेस से भारत के मुक्त होने का दावा भाजपा की ओर से किया जा रहा है उसने बंगाल में 2011 के 42 सीटों और 9.9 प्रतिशत वोट को 2016 में 44 सीटों और 12.2 प्रतिशत वोट तक पहुंचा दिया.
जहां तक तमिलनाडु का सवाल है भाजपा यहाँ सीटों का खाता भी नहीं खोल पाई.हां,वह चाहे तो इस बात के लिए इतरा सकती है कि उसने वहां 2011 के 2.22 प्रतिशत के मुकाबले इस बार 2.85 प्रतिशत वोट हासिल किया,अर्थात 2011 के मुकाबले .63 प्रतिशत वोट बढ़ा लिया.उधर कांग्रेस 2011 के 5 सीटों के मुकाबले 8 सीटें हासिल कर लिया.अब पांचवें राज्य पुडुचेरी की बात करें तो पता चलेगा कि भाजपा ने यहाँ बेहतर परिणाम की भारी उम्मीदें पाल रखीं थी और इसके लिए उसकी ओर से भरपूर प्रयास किया गया था.इस क्रम में चुनाव के दो दिन पहले जहां भाजपाध्यक्ष अमित शाह वहां अपनी भारी-भरकम उपस्थिति दर्ज कराये , वहीँ उसके मातृ संगठन आरएसएस ने कोई दस दिन पूर्व वहां अपने द्विवार्षिक कैम्प का समापन किया था.परिणाम क्या मिला,भाजपा वहां की तीसों सीटों पर प्रार्थी उतार कर भी अपना खाता तक नहीं खोल पाई.हां इस बात से वह चाहे तो खुश हो सकती है कि 2011 के 1.32 के मुकाबले 2016 में 2.4 प्रतिशत वोट हासिल कर सकी.अब जिस कांग्रेस से वह भारत को मुक्त होने का दावा कर रही,उस कांग्रेस ने 2011 के 7 सीटों और 26.53 प्रतिशत वोट के मुकाबले 2016 में वहां की 15 सीटों पर जीत और 30.6 प्रतिशत वोट हासिल करते हुए सत्ता पर कब्ज़ा जमा लिया.तो कुल मिला कर पांच राज्यों का चुनाव परिणाम क्या केंद्र की सत्ता पर काबिज दल की शर्मनाक पराजय की गवाही नहीं देते?यह देखते हुए कि भाजपा पिछले डेढ़ दशक से केंद्र की सत्ता के आसपास ही है,पांच राज्यों का चुनाव परिणाम निश्चय ही शर्मनाक श्रेणी गण्य होना चाहिए.
बहरहाल भाजपा की शर्मनाक पराजय के बावजूद कांग्रेस को उससे दो कारणों से अवश्य ही डरना चाहिए.पहला, यह कि भाजपा ही अब इस देश के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न सवर्णों की आशा और आकांक्षा की प्रतीक बन चुकी है और दूसरी यह कि उस कारपोरेट मीडिया का अंध समर्थन भाजपा के पाले में जा चुका है जिसने दिल्ली में एनजीओ गैंग और केंद्र में मोदी को जबरदस्त जीत दिलाने में प्रभावी रोल अदा कर इस बात पर मोहर लगा दिया है कि वह राजनीति को प्रभावित करने की अपार ताकत हासिल कर ली है.उसी सवर्णवादी मीडिया और उसमें छाये सवर्ण बुद्धिजीवियों का कमाल है कि पांच राज्यों का चुनाव परिणाम आने के बाद अवाम भाजपा के कांग्रेस-मुक्त भारत के दावे से प्रभावित होते दिख रहा है.अब कांग्रेस का जो राजनीतिक संस्कार है सवर्णवादी होने के बावजूद वह सवर्णों और कार्पोरेट मीडिया को भाजपा की भाँति प्रिय नहीं हो सकती.इसके लिए उसे सवर्ण हितों की नग्न हिमायत,साधु-संतों का तैलमर्दन,धर्मान्धता को बढ़ावा देने के साथ अल्पसंख्यक विद्वेष जैसे जघन्य कार्य करने होंगे,जो शायद उसके लिए मुमकिन नहीं.ऐसे में कांग्रेस के समक्ष एक ही विकल्प बचता है और वह यह कि वह सवर्णवाद की बजाय वह अपना एजेंडा बहुजनवाद अर्थात दलित,आदिवासी,पिछड़ों और अल्पसंख्यक हित पर केन्द्रित करे.कांग्रेस के पास नेतृत्व की समस्या नहीं,समस्या एजेंडे की है.सवर्णहितों के प्रति अच्छा-खासा दुर्बलता पोषण करने के कारण कांग्रेस दलित,आदिवासी,पिछड़ों ,अल्पसंख्यक इत्यादि जैसे अपने परम्परागत वोटरों के पक्ष में इक्कीसवीं सदी के अनुरूप खुलकर कोई कार्यक्रम नहीं बना पा रही है.इसके लिए उसे इन वंचित वर्गों को सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों इत्यादि विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में हिस्सेदारी सुलभ कराने लायक एजेंडा स्थिर करने होगा.
इस मामले में वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह द्वारा 12-13 जनवरी,2002 को जारी ‘भोपाल घोषणापत्र’ एक मार्गदर्शक का काम कर सकता है .भोपाल घोषणा यूँ तो मध्य प्रदेश के दलित-आदिवासियों को संबोधित था.किन्तु वर्तमान में यदि इसे दलित,आदिवासियों से आगे बढ़ाते पिछड़ों और अल्पसंख्यकों तक प्रसारित कर दिया जाय,कांग्रेस अपराजेय बन जाएगी.हो सकता है कि बहुजनवादी एजेंडे पर कार्यक्रम स्थिर करने पर राज्य की राजनीति में उतना लाभ न मिले,पर केंद्र में सत्ता कायम करने के लिए यह रामवाण साबित हो सकता है.ऐसे में कांग्रेस यदि सवर्णवादी राजनीति से तौबा कर बहुजनवाद खड़ी नहीं होती है ,मुमकिन है भाजपा का कांग्रेस-मुक्त भारत का दावा सुदूर भविष्य में सही साबित हो जाय.
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रिय अध्यक्ष हैं.
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