-संजय द्विवेदी
भारतीय जनता पार्टी ने अंततः अमित शाह को दुबारा अपना अध्यक्ष बनाकर यह संदेश दे दिया है कि पार्टी में ‘मोदी समय’ अभी जारी रहेगा। कई चुनावों में पराजय और नाराज बुजुर्गों की परवाह न करते हुए बीजेपी ने साफ कर दिया है कि अमित शाह, उसके ‘शाह’ बने रहेगें। दिल्ली और बिहार की पराजय ने जहां अमित शाह के विरोधियों को ताकत दी थी, तथा उन्हें यह मौका दिया था कि वे शाह की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर सकें। किंतु विरोधियों को निराशा ही हाथ लगी, और शाह के लिए एक मौका फिर है कि वे अपनी आलोचनाओं को बेमतलब साबित कर सकें।
कार्यशैली पर उठे सवालः अमित शाह के बारे में कहा जाता है कि वे अधिनायकवादी हैं, और संवाद में उनका भरोसा कम है। वे आदेश देते हैं और उसे यथाशब्द पालन होते देखना चाहते हैं। उनके बारे में सुना जाता है कि वे लोकतांत्रिक कम हैं, और बिग बास सरीखा व्यवहार करते हैं। उ.प्र. में भाजपा की अप्रत्याशित सफलता ने जहां शाह को एक कुशल रणनीतिकार के रूप में स्थापित किया वहीं उनके आलोचकों को किस्से बहुत मिल गए। हालांकि जब अमित शाह वहां पहुंचे तो उ.प्र. वैसे भी एक पस्तहाली से गुजर रहा था। नेता काफी थे, सब बड़े और अहंकार से भरे, किंतु काम के बहुत कम। अमित शाह ने जो भी किया वे उ.प्र. से बेहतर परिणाम ला सके। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि वे भाजपा के परंपरागत नेतृत्व की कम सुन रहे थे। क्या यह संभव था कि उ.प्र. जैसे राज्य में वहां के परंपरागत नेताओं की अगुवाई में चुनाव जीते जा सकें। अमित शाह ने जो भी किया, समय ने उसे सही साबित किया। मोदी का उ.प्र. का लड़ना साधारण फैसला नहीं था, किंतु उसने भाजपा की एक हवा बनाई और उ.प्र. अरसे बाद भाजपा की गोद में आ गया। अमित शाह को जानने वाले जानते हैं कि वे रणनीति के उस्ताद और काम में भरोसा रखने वाले हैं। संगठन को वैज्ञानिक ढंग से चलाना उनकी आदत है। वे भाषणप्रिय टीम के बजाए काम की टीम रखते हैं, और परिणाम देते हैं। ऐसे में बिहार और दिल्ली के परिणामों के आधार पर उनकी छुट्टी का कोई आधार नहीं बनता।
दिल्ली के हार के कारण बहुत अलग हैं और बिहार भी एक अलग कहानी है। दोनों राज्यों में भाजपा की हार के कारण अध्ययन का विषय हैं। बिहार में भाजपा कुछ ज्यादा उम्मीदों से थी, जबकि यहां उसकी कोई जमीन है ही नहीं। मत विभाजन के चलते मिली सफलताओं को वह अपनी निजी सफलता मानने के भ्रम में थी। जैसे कल्पना करें उ.प्र. में सपा और बसपा का गठबंधन हो जाए तो परिणाम क्या होगें? जाहिर तौर पर उत्तर भारत की राजनीति में आज भी जातीय गोलबंदियां मायने रखती हैं। उनके परिणाम आते हैं। बिहार जैसे राज्य में जहां आज भी जाति सबसे विचार संगठन और विचार है, को जीतना भाजपा के परंपरागत तरीके से संभव कहां था? अपने व्यापक अभियान के चलते भाजपा ने अपना वोट बैंक तो बचा लिया, पर इतना तूफानी अभियान न होता तो भाजपा कहां होती?
नए अध्यक्ष की चुनौतियां- भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के लिए पराजयों का सिलसिला अभी जारी रहने वाला है। जिन राज्यों में आगामी चुनाव हैं वहां भाजपा कोई परंपरागत दल नहीं है। इसलिए उसकी ताकत तो बढ़ सकती है पर सत्ता में उसके आने के आसार बहुत कम हैं। राजनीति को पूरी तरह उलटा नहीं किया जा सकता। असम में भाजपा का उंचा दांव है, तो बंगाल में वह संघर्ष में आने को लालायित है। इसके साथ ही पंजाब से भी बहुत अच्छी खबरें नहीं है। उप्र का मैदान तो सपा-बसपा के बीच आज भी बंटा हुआ है। ऐसे में अमित शाह के लिए चुनौती यही है कि वे अपने दल की ताकत को बढ़ाएं और सम्मान जनक सफलताएं हासिल करें। इसके साथ ही उन पर सबसे आरोप संवादहीनता और मनमाने व्यवहार का है। उन्हें अपने साथ घट रही इस शिकायत पर भी ध्यान देना होगा। भाजपा एक परिवार की तरह चलने वाली पार्टी रही है, उसे कंपनी या कारपोरेट की तरह चलाना शायद लोगों को हजम न हो। किंतु अनुशासन की जिस तरह घज्जियां उड़ रही हैं, उसे संभालना होगा। अकेले बिहार के शत्रुध्न सिन्हा, कीर्ति आजाद, आर के सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव जैसे लोकसभा सदस्यों ने जिस तरह की बातें कहीं, वह एक चेतावनी है। यह असंतोष बड़ा और संगठित भी हो सकता है। इसका उन्हें ध्यान देना होगा। उन्हें यह भी ध्यान देना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दुखी जन हमले मोदी पर नहीं अमित शाह पर ही करेगें, क्योंकि अमित शाह की विफलता को कहीं न कहीं मोदी की विफलता से जोड़कर ही देखा जाएगा।
भौगोलिक विस्तार और संगठनात्मक सुदृढ़ता का मोर्चाः भाजपा ने अपनी लंबी यात्रा में बहुत कुछ हासिल किया है। किंतु आज भी देश के तमाम वर्गों के लिए वह एक अछूत पार्टी है। अमित शाह को भाजपा के भौगोलिक-सामाजिक विस्तार के साथ संगठन की सुदृढ़ता पर भी ध्यान देना होगा। दक्षिण- भारत के राज्यों में उसका विस्तार अभी प्रतिक्षित है। उसकी कर्नाटक में रही अकेली सरकार भी जा चुकी है। ऐसे में भाजपा ऐसा क्या करेगी कि उसके माथे से उत्तर भारत का दल होने का तमगा हटे, इसे देखना रोचक होगा। भाजपा को समाज के बुद्धिजीवी वर्गों, तमाम प्रकार के प्रदर्शन कलाओं, और कलाक्षेत्र से जुड़े गुणवंतों से संपर्क बनाना होगा। उनके साथ संवाद निरंतर करना होगा और अपनी उदारता का परिचय देना होगा। संस्कृति और कला के सवालों पर अपने अपढ़ नेताओं को बोलने से रोकना होगा। इन विषयों पर अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ ही बात करने वाले नेता आगे आएं। भाजपा में बड़ी संख्या में ऐसे कार्यकर्ता हैं जो भावनात्मक आधार पर काम करते हैं, उनके राजनीतिकरण की प्रक्रिया पार्टी को तेज करनी होगी। इसका लाभ यह होगा कि वे हर स्थिति में अपने राजनीतिक पक्ष का साथ देगें, और उसे स्थापित करने के सचेतन प्रयास करेंगें। आज स्थिति यह है कि भावनात्मक आधार पर जुड़े कार्यकर्ता कुछ गड़बड़ देखकर या तो अपनी ही सरकार के कटु आलोचक हो जाते हैं या निष्क्रिय होकर घर बैठ जाते हैं। वैचारिक प्रशिक्षण के अभियान चलाकर उन्हें भाजपा में होने के मायने बताने होगें। अपने दल के कार्यकर्ताओं का यह प्रशिक्षण उन्हें नए भारत में उनकी भूमिका से संबंधित होना चाहिए। कम समय में निराश हो रही अपनी फौज को संभालने के लिए शाह को कड़ाई से दल के बयानवीरों पर रोक लगानी होगी। भाजपा के सांसद और विधायक या मंत्री हर विषय के विशेषज्ञ बनकर अपनी राय न दें, इससे दल की जगहंसाई भी रूकेगी और विवाद के अवसर कम आएंगे। मोदी सरकार के मंत्रियों को भी अपेक्षित संयम के साथ ही संवाद के मैदान में कूदना चाहिए। अमित शाह और नरेंद्र मोदी लंबे समय तक गुजरात में काम किया था, उन्हें ध्यान देना होगा कि भारत गुजरात नहीं है।
(लेखक संजय द्विवेदी राजनीतिक विश्वेषक हैं)
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