डा.राधेश्याम द्विवेदी
अवस्थिति एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह स्थान बस्ती जिला व मण्डल मुख्यालय से 36 किमी. पूरब तथा गोरखपुर जिला एवं मण्डल मुख्यालय से भी 36 किमी. पश्चिम में 260 47’ उत्तरी अक्षांश तथा 830 5’ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। शेरशाह सूरी द्वारा निमित यह राजपथ पहले वौद्ध काल तथा रामायण काल में आम रास्ता हुआ करता था। इसी पथ पर यह नगर बाद में बसा है। यह लाहौर से कलकत्ता का राजमार्ग भी हुआ करता था। 1680 ई. में औरंगजेब ने एक काजी खलील उर रहमान को चकलेदार (कर वसूलनेवाला ) के रूप में गोरखपुर भेजा था, तो वह स्थानीय राजाओं को अपने अधीन करते हुए उनसे पुनः नियमित करों का भुगतान करवाने लगा था। वह कर वसूलने के लिए अयोध्या से प्रस्थान किया था। इस यात्रा के दौरान अमोढ़ा और नगर के राजा जो हाल ही में सत्तासीन हुए थे , उनसे भी शीघ्रता से सरकारी लगान जमा करवा लिया और युद्ध की स्थिति से बचा लिया था। चकलेदार ने तब मगहर के लिए प्रस्थान किया था। वहां बांसी के राजा द्वारा बनवाये सौनिक किले को पुनः शाही सेना के अधीन कर लिया था। मगहर के राजा को कार्यमुक्त कर राप्ती के तट पर स्थित बांसी के किले में वापस जाने को बाध्य कर दिया था।
खलीलाबाद शहर जो अब रेलवे स्टेशन, तहसील तथा जिला मुख्यालय दोनो है, इसी चकलेदार खलील उर रहमान के नाम से बसा है। यहां उसका एक सुन्दर किला भी था। जिसमें वर्तमान समय में थाना बना हुआ है। उस समय शस़्त्रागार मगहर में हुआ करता था। इस खलील का मगहर में मकबरा बना हुआ है। इसके अनेक उत्तराधिकारी यहां वसे हुए हैं। 1905 में मोहम्मद जलील इनके वारिसान थे। यहां एक रास्ता अयोध्या से गोरखपुर के लिए पहले से ही बनाया गया था। मुस्लिम सेना के यहां पर रहने से उस क्षेत्र पर बड़ा सामरिक प्रभाव पड़ा था। भू-राजस्व जो अब तक नाममात्र ही एकत्र हो पा रहा था इसके आने से नियमित इकट्ठा किया जाने लगा था। यह पूर्व में गोरखपुर जिला उत्तर में बांसी तहसील तथा दक्षिण में घाघरा नदी से घिरा हुआ है। इसमें दो परगनाओं को प्रारम्भिक रूप में समलित किया गया था, मगहर पूर्व तथा महुली पूर्व। उस समय खलीलाबाद तहसील हवेली तप्पा में लगता था। इसमें 1905 में 39 तप्पाओ तथा 1567 गांवों को रखा गया था। उस समय खलीलाबाद तहसील में इसी नाम का परगना भी होता था। यह तप्पा हवेली में लगता था। यहां पूर्व से पश्चिम में गोरखपुर फैजाबाद राजमार्ग तथा उसी के सामानान्तर रेलवे लाइन बनी हुई है। एक मार्ग मेंहदावल को और दूसरा घनघटा मुखलिसपुर को जाता है। सड़क के दोनो तरफ बाजार हुआ करता था। यहां सप्ताह में दो बार बाजार भी लगता रहा है। इस तहसील व जिले के अंतर्गत मेहदावल, बखिरा, मगहर, नाथ नगर, सेमरियांवा , हरिहरपुर, मुखलिसपुर, हैसर तथा धनघटा आदि यहां के अन्य प्रमुख उप नगर तथा बाजारें हैं। तमेसरनाथ यहां का एक प्राचीन बौद्ध एवं शिव स्थल है । कोपा कोपिया भी एक ऐतिहासिक एवं औद्योगिक स्थल है।
1865 में यहां तहसील बनी थी। यहां एक चिकित्सालय एक डिग्री कालेज थाना पोस्ट आफिस आदि भी बना है। गोरखपुर मार्ग के दक्षिण में तहसील का भवन हुआ करता था। इसके आसपास पुरानी मुस्लिम आवादी है। स्वतंत्रता आन्दोलन में यह स्थान क्षतिग्रस्त हुआ था। रगड़गंज यहां का प्राचीन बाजार हुआ करता था। हैण्डलूम के थोक कपड़ों तथा जानवरों का बरदहिया यहां बहुत विशाल बाजार भी लगता है। इसका पूरे देश में अपनी गुणवत्ता जानी जाती है। मंेहदावल मार्ग के पूरब में सेना का शिविर स्थल हुआ करता है।
1872 ई. में यहां की आबादी 307717 थी। 1881 ई में आबादी 341590 हो गई थी। 1891 ई में 380486, 1901 ई में 394675 जनसंख्या हो गई थी। 1905 में इस तहसील के अंतर्गत 3,65,960 एकड़ भूभाग रखा गया था। राप्ती और घाघरा के बीच कछारी भूभाग तथा शेष भूभाग को उपहार कहा जाता है। इस समय तहसीलदार यहां का प्रधान नियंत्रक हुआ करता था। मंुसफी बस्ती जिले के अधीन था। उस समय स्थानीय स्तर पर महुली ओर बराकोनी पुलिस स्टेशनों के लिए राय कन्हैया बक्ख पाल बहादुर यहां के आनरेरी मजिस्ट्रेट हुआ करते थे।
जनपद की घोषणा
खलीलाबाद को 05 सितम्बर 1997 को सन्त कबीर नगर नामक पृथक जिला घोषित किया गया। इस क्षेत्र के समीप संत कबीर की निर्वाण स्थली होने के कारण इस नये जिले का नाम सन्त कबीरनगर दिया गया। इसके लिए 131 गांव बस्ती तहसील से तथा 161 गांव बांसी तहसील से अलग कर इस जिले को पूरा किया गया है। इस तहसील में अब सेमरियांवा, बघौली तथा खलीलाबाद विकास खण्डों को को मिलाकर के खलीलाबाद तहसील घोषित किया गया है। साथ ही जिले के उत्तरी भाग मेंहदावल, सांथा तथा बेलहर कला विकास खण्डों को मिलाकर मेंहदावल तहसील घोषित की गई। दक्षिणी भाग पौली , हैंसर बाजार तथा नाथनगर विकास खण्डों को मिलाकर नई धनघटा नाम से पृथक तहसील घोषित की गई। सब मिलाकर इस नये जिले में 646 गांव पंचायतें , 9 विकास खण्ड तथा 7 थान्हें बने हुए हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार 11,62,138 जनसंख्या थी। इनमें 6,05,533 पुरूष, 5,56,505 महिला थीं। इनमें 81,718 शहरी क्षेत्र तथा 1,08,420 ग्रामीण क्षेत्रों में लोग रहते है। वर्तमान समय में 2011 की जनगणना के अनुसार में यह 1659 वर्ग किमी (640.6 वर्ग मील ) क्षेत्र में फैला तथा 17,14,300 जनसंख्या रखता है। जिले की जनसंख्या का घनत्व 700 प्रति वर्ग किमी. है जबकि उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का औसत घनत्व 472 है।
खलीलाबाद के उद्योग धन्धे
बन्द पड़े चीनी मिल
मुख्यतः यह कृषि वाहुल्य नगर है। यहां की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही आधारित है। कृषि पर आधारित यहां का मुख्य चीनी मिल अलाभकारी स्थिति में पहुंचने के कारण बन्द चल रहा है। इससे किसानों को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है। सरकारी प्रयास सही रूप में न किये जाने से यह उद्योग जो पूर्वांचल का जान हुआ करता था, आज उसकी बड़ी ही दयनीय स्थिति है। पिछले सत्रों के बकाया मूल्यों का भुगतान भी नहीं हो सका है। सरकार इनकी बढ़ती लागत की पूर्ति कर इसे चलाने की कोई कारगर कदम उठाते नहीं दीख रही है। इस कारण गन्ने का उत्पादन भी लोग कम कर दिये हैं। मिलों को जरूरत भर का गन्ना ना मिल पाने से घाटा बढते-बढते बन्द करने की नौबत आ गई है। यहां डिसलरी सुविधाओं की भी कमी है। खलीलाबाद ही नहीं पूर्वांचल की एसी दसो मिल बन्दी के कागार पर चल रही हैं। सरकार गन्ने का समर्थन मुल्य राजनीतिक तथा वोट वैंक के दबाव के कारण बढ़ा देती हैं परन्तु मिल मालिकों को सुविधायें नहीं उपलब्ध कराती है। यह उद्योग सरकारी खजाने पर हर सीजन में 14,000 करोड़ रूपये का योगदान देता हैं। स्थानीय अर्थव्यवस्था चीनी उद्योग पर पूर्ण रूपेण आश्रित हैै। यदि इसका अद्यतन हिसाब-किताब लगाया जाय तो यह घाटा और बढ़ा हुआ ही मिलेगा।
हथकरघा कपड़ा मिल
यहां प्राचीन समय से हथकरघा के मिलें हुआ करते थे। मध्यकाल में गाढें मोटे सूती कपड़ो का प्रचलन था। व्रिटिस काल में यही पैटर्न बना हुआ था। इनके वित्तीय संचालकों ने श्रमिकों का शोषण करना शुरू कर दिया तो इस उद्योग की कमर भी टूटने लगी। लोहरसन, अमरडोभा और हरदा में मोटा कपड़ा बनता है। मगहर में खादी बस्त्र तथा कपड़े की रंगाई का काम होता है। यहां गांधी आश्रम से कपड़े का बड़ा उत्पादन होता है। सामान्यतः हथकरघों से मुस्लिम जुलाहे कपड़े बुनते थे। कुछ सीमित हिन्दू भी यह काम करते थे। गाढ़ा गोटा कपड़ा होता था और महीन कपड़े मुस्लिम अनुदानों से बुनते थे।
व्रिटिस सरकार में
जब भारत की 1801 में अंग्रजों ने सत्ता संभाली तो थोड़ा सुधार आया। यहां इंग्लैण्ड तथा अन्य बाहरी देशों से आयातित माल भी आने लगे। बस्तुओं के मांग में कमी आयी। इससे इस उद्योग के लोगों को और भी कठिनाइयों से गुजरना पड़ा और किसी तरह वे अपना जीवन बचाने में कामयाब रहे।
वर्तन उद्योग- प्राचीन समय से ही पीतल व फूल के बरतन बखिरा के घर घर में बनाये जाते हैं।
नगरीय अद्यतन स्थिति
वर्ष 2000 की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में यहां 2 बड़े उद्योग बन्द हैं। 8 मध्यम उद्योग में लगभग 600 श्रमिक , 1100 छोटे उद्योग में लगभग 5500 श्रमिक लगे हुए है। यहां के 618 ग्रामीण काटेज उद्योग में लगभग 1200 श्रमिक काम करते हैैं। यहां गैस की 2 कागज की 2 रिफाइन्ड की इकाइयां कार्यरत हैं इनमें 10.21 करोड़ का निवेश हुआ हैं। कुल लगभग 600 व्यक्ति कार्यरत है। कुल लागत रू. 34 करोड़ के आसपास है। लघु उद्योगों में चमड़े का पैर, मिटटी के बरतन , ऊनी कम्बल,पीतल व ताम्बे के बरतन, कृषि उपकरण, लोहा और बढईगीरी का सामान, ईंटें, साबुन मोमबत्ती वर्तन, होजरी, खांडसारी तथा कंघी आदि की छोटी-छोटी इकाइयां स्थापित हुई हैं। इससे 50 से लेकर एक लाख तक व्यक्तियों को रोजगार मिले हैं। ये उद्योग सामान्यतः खलीलाबाद के नगरीय क्षेत्रों में ज्यादा विकसित हुआ था।
ग्रामीण और कुटीर उद्योग
यहां पारम्परिक कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग पीढ़ी दर पीढ़ी देखने को मिलती है। सूती बस्त्र , वर्तन, तिलहन, कन्फेसनरी, बडईगीरी , धातु के सामानों का निर्माण, टोकरी , कम्बल,रस्सी व सूत आदि ग्राम्य आधारित कुटीर उद्योग यहां विकसित हुए हैं।
उद्योगों को सरकारी सहायता
सरकार ने लघु उद्योगों को प्रात्साहित करने के लिए विभिन्न वित्तीय संस्थानों के माध्यम से ऋण, अनुदान तथा तकनीकी सहायता देने के लिए उद्योग केन्द्र स्थापित कर रखे हैं, जो उचित तकनीकी तथा मार्ग निर्देशन करके, उन लोगों का आधुनिकीकरण एवं पुनरुद्धार करके उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं।
औद्यौगिक क्षमता
यह जिला सड़क तथा रेल मार्ग से भारत के प्रमुख नगरों दिल्ली , कलकत्ता , मुम्बई, कानपुर, लखनऊ, बनारस व गोरखपुर से तथा असम, वंगाल, विहार ,गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब तथा राजस्थान आदि प्रदेशों से जुडा़ हुआ है। यहां प्लास्टिक इंजीनियरिंग की अच्छी क्षमता हैं। कृषि उपकरण, मशीने , लोहे के फर्नीचर , दरवाजे, खिड़कियां, ग्रिल, चमड़े का समान , रेडीमेड परिधान , कपड़े धोने के साबुन, किताबे कापियां, रजिस्टर तथा स्टेशनरियां आदि का निर्माण यहां पर होता है। यहां अनुदान भी दिया जाता है तथा वाणिज्य कर में छूट भी दी जाती हैं। कृषि आधारिात चावल, दाल, आंटा, तेल, लकड़ी पर आधारित इकाइयां भी संचालित हैं। इनमें उत्तरोत्तर सुधार तथा विकास करके इसे और सुगम तथा सुविधा पूर्ण बनाया जा सकता है।
डा. राधेश्याम द्विवेदी
पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा
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