-एस. गोपीकृष्णा वरियर-
भूमिगत जल प्रदूषण की बढ़ती समस्या से निजात पाने के लिए आईआईटी मद्रास के वैज्ञानिकों ने नैनोटैक्नोलॉजी का उपयोग करते हुए एक असरकारी और कम कीमत वाला आर्सेनिक फिल्टर विकसित किया है। इतिहासकारों के बीच आज भी जहां यह बहस जारी है कि क्या नेपोलियन बोनापार्ट की मौत आर्सेनिक के जहर से हुई थी। वहीं, एशिया में तकरीबन साढ़े छह करोड़ लोग आर्सेनिक मिश्रित पानी से उपजने वाले स्वास्थ्य जोखिमों से जूझने के लिए रोजाना अभिशप्त हैं। इनमें से साढ़े तीन करोड़ लोग बांग्लादेश, पचास लाख लोग भारत और साढ़े पांच लाख लोग नेपाल के हैं। पाकिस्तान के सिंधु घाटी क्षेत्र में भी यह जहर तेजी से फैलता दिख रहा है। आईआईटी मद्रास के वैज्ञानिकों की टीम ने नैनो टैक्नोलॉजी का उपयोग करते हुए 'अमृत' नामक जिस कम कीमत वाले आर्सेनिक फिल्टर का विकास किया है, वह इस मामले में वाकई मददगार साबित हो सकता है। पश्चिम बंगाल में इसको लेकर किया गया प्रयोग कामयाब रहा है। नतीजतन, भारत सरकार देश के दूसरे हिस्सों में भी इसके उपयोग की बात कर रही है।
आईआईटी मद्रास के वैज्ञानिकों की टीम के नेतृत्वकर्ता टी. प्रदीप को उम्मीद है कि अगर भारत के सभी समस्याग्रस्त क्षेत्रों में इस तकनीकी का उपयोग किया जाने लगा, तो पांच वर्षों के भीतर आर्सेनिक प्रदूषण का असरकारक समाधान ढूंढा जा सकेगा। आईआईटी मद्रास में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर प्रदीप को अपनी टीम पर जो भरोसा है, उसकी वजह भी है। उनकी टीम पश्चिम बंगाल के दो जिलों मुर्शिदाबाद और नाडिया में अपने प्रयोग को कामयाबीपूर्वक अंजाम दे चुकी है। फिलहाल उनकी टीम राज्य के दक्षिणी 24 परगना जिले में काम कर रही है। प्रदीप बताते हैं, ''जब हम अपनी नैनो फिल्टरेशन तकनीकी का प्रयोग कर रहे थे, तब हमें नहीं पता था कि मुर्शिदाबाद के जिला कलेक्टर हमारे काम का बारीकी से मुआयना कर रहे थे। प्रयोग के सकारात्मक नतीजों से उन्हें भी भरोसा हो गया कि इस तकनीकी को लेकर आगे बढ़ा जा सकता है। ''
मुर्शिदाबाद में जिला प्रशासन आईआईटी मद्रास की टीम द्वारा डिजायन की गई 2000 यूनिटें लगा रहा है। ऐसी हर यूनिट 100 से 300 लोगों की जरूरतें पूरी करने में सक्षम होगी। टीम ने 300 से लेकर एक लाख लीटर प्रति घंटे की क्षमता वाली विभिन्न यूनिटों को लेकर परीक्षण भी किए हैं। पड़ोसी जिले नाडिया में भी टीम ने एक बार फिर से जिला प्रशासन की मदद से हैंड पंपों से जोड़ते हुए असरकारी फिल्टरेशन यूनिटें स्थापित करने के प्रयास किए। इसके पीछे दरअसल मूल विचार यह था कि हैंड पंपों का उपयोग करने वाले स्कूली बच्चों को मिलने वाले पीने के पानी से आर्सेनिक प्रदूषण को दूर किया जाए। हैंडपंप से पानी के निकलते ही उसे फिल्टर करने की चुनौती बड़ी थी। इसलिए इन यूनिटों को इस तरह से डिजायन किया गया कि उन्हें हैंडपंपों के मुख में फिट किया जा सके। स्कूलों के कुल 330 हैंडपंपों में ये यूनिटें लगाई गई हैं और ऐसी हर यूनिट कम से कम 300 बच्चों की जरूरतों को पूरा करेगी। बकौल प्रदीप, ''फिल्टरेशन की ऐसी इनलाइन यूनिटों के फायदे बहुत हैं। एक आकलन के अनुसार भारत में तकरीबन 23 लाख हैंडपंप हैं। इनमें से तकरीबन पांच फीसदी (एक लाख बीस हजार से भी ज्यादा)आर्सेनिक प्रदूषण से ग्रस्त हैं। इसके अलावा ये यूनिटें घरों में सप्लाई होने वाली पीने के पानी से भी जोड़ी जा सकती हैं।'' आईआईटी मद्रास की टीम को पश्चिम बंगाल के दक्षिणी 24 परगना जिला प्रशासन से भी निमंत्रण मिला है, ताकि इस जिले में भी नैनो फिल्टर लगाए जा सकें।
स्वास्थ्य पर असर
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आर्सेनिकोसिस नामक बीमारी आर्सेनिक प्रदूषण की वजह से ही होती है। इसका पूरी तरह पता चलने में अमूमन पांच से 20 वर्ष का लंबा समय लग सकता है। लंबे समय तक आर्सेनिकयुक्त पानी ग्रहण करने से स्वास्थ्य पर कई तरह के असर पड़ने की आशंका होती है। इनमें प्रमुख हैं, त्वचा से जुड़ी समस्याएं (त्वचा के रंग में बदलाव, हथेलियों पर गहरे धब्बे और पैर के तलवों में सूजन), त्वचा कैंसर, ब्लैडर, किडनी व फेफड़ो का कैंसर, पैरों व तलवों की रक्त वाहिनिओं से जुड़ी बीमारियों के अलावा डायबिटीज, उच्च रक्त चाप और जनन तंत्र में गड़बड़ियां। पीने के पानी में आर्सेनिक की विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा नियत सीमा दस पार्ट्स प्रति अरब (10 पार्ट्स पर बिलियन) है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन को महसूस हो गया कि कुछ देशों में इस सीमा का पालन करना मुमकिन नहीं है, इसलिए उसने इसे एक लक्ष्य के तौर पर जारी किया और कहा कि यह सीमा 50 पाट्स पर बिलियन (पीपीबी) से कम होनी चाहिए। भारतीय मानक ब्यूरो के मुताबिक इस मामले में स्वीकृत सीमा 10 पीपीबी नियत है, हालांकि वैकल्पिक स्रोतों की अनुपस्थिति में इस सीमा को 50 पीपीबी पर सुनिश्चित किया गया है। प्रदीप बताते हैं कि आईआईटी मद्रास की तकनीकी का उपयोग करने से पानी में आर्सेनिक की मात्रा 2 पीपीबी तक सिमट जाती है और वह भी मात्र 4 पैसे प्रति लीटर की कीमत पर। बकौल प्रदीप, ''अपनी इस तकनीकी की मदद से हम भारतीय लागत पर अंतरराष्ट्रीय मानकों पर पहुंच गए हैं।''
कैसे काम करती है
आईआईटी मद्रास के आर्सेनिक फिल्टर बायोपॉलिमर-रिइन्फोर्स्ड सिंथेटिक ग्रेनुलर नैनोकम्पोजिट टैक्नोलॉजी का उपयोग करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित आईआइटी मद्रास के एक पत्र में कहा गया कि आर्सेनिक, लेड और दूसरे संदूषकों को दूर करने के लिए विभिन्न नैनो कंपोजिटों को मिलाकर तैयार की गई तकनीकी का उपयोग करने से एक ऐसा सस्ता स्वच्छ जल फिल्टर तैयार किया जा सकता है, जो बगैर बिजली के भी काम कर सकता है। दरअसल, नैनोकंपोजिट नदी किनारे पाई जाने वाली रेत जैसी विशेषताएं रखते हैं। प्रति परिवार प्रति वर्ष 180 रुपये की कीमत में इस मैटेरियल की मदद से कम कीमत वाला जल प्यूरीफायर तैयार किया जा सकता है।
प्रदीप बताते हैं, ''नैनोकंपोजिट चूर्ण जैसे होते हैं, जिन्हें बगैर बिजली के कमरे के तापमान पर तैयार किया जा सकता है। यह उस प्राकृतिक जैविक पदार्थ की तरह होता है, जिससे समुद्री सीप बनते हैं। इससे पानी में नैनो अंतराल बन जाते हैं। इन्हीं अंतरालों का उपयोग आर्सेनिक, पेस्टिसाइड्स, मरकरी और आयरन को फिल्टर करने में किया जा सकता है।'' सीपों और घोंघे के खोल में प्राकृतिक तौर पर चितोसान नामक पदार्थ पाया जाता है। जबकि इसके बदले नैनोकंपोजिट में जो पदार्थ उपयोग में लाया जाता है, उसे जरूरत के अनुसार बदला जा सकता है। पीने के पानी में जिस संदूषण को दूर करना हो, उसके ही मुताबिक यह बदलाव किया जा सकता है। माइक्रोऑर्गेनिज्म से निपटने के लिए सिल्वर नैनोपार्टिकल के साथ एल्यूमीनियम ऑक्सीहाइड्रॉक्साइड चितोसन का उपयोग किया जा सकता है। मैंगनीज डाई ऑक्साइड चितोसन से लेड को फिल्टर किया जा सकता है। वहीं, आर्सेनिक को फिल्टर करने के लिए ऑयरन ऑक्सीहाइड्रॉक्साइड चितोसन प्रयुक्त होता है।
स्रोत
हिमालयी नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में पीने के पानी के स्रोतों में आर्सेनिक संदूषण देखने में आता है। इसकी वजह यह है कि हिमालय की चट्टानों से बहते पानी में आर्सेनिक घुलता जाता है। यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के एक प्रकाशन के अनुसार अपक्षरण की प्रक्रिया के चलते हिमालय की चट्टाने छोटे-छोटे कणों में टूटने लगती हैं। इससे रासायनिक बदलाव भी आने लगते हैं। चट्टानों में पाया जाने वाला आयरन ऑक्सीकृत होकर आयरन ऑक्साइड या जंग में रूपांतरित हो जाता है, जो अपने ऊपर बहने वाली नदियों से आर्सेनिक को खींच लेता है। ये पत्थर और कंकड़ बाद में डेल्टा क्षेत्र में नदियों के नीचे जमा होने लगते हैं। इन कंकड़ों से आर्सेनिक पूरे पानी में मिल जाता है। स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन जीवाणुओं के एक समूह के बारे में बताता है, जो तलछट में जमा आर्सेनिक और आयरन को जल में घुलनशील बना देता है। डेल्टाई क्षेत्र में भूमिगत जल के लगातार बढ़ते उपयोग ने आर्सेनिक के जोखिम को भी बढ़ा दिया है। हालांकि बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के डेल्टाई क्षेत्रों में आर्सेनिक संदूषण को भली-भांति पहचान लिया गया है। लेकिन हालिया रिपोर्टें बताती हैं कि पाकिस्तान के सिंधु घाटी डेल्टा में भी आर्सेनिक का संदूषण बढ़ता जा रहा है। बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान में जो लोग इस समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, वे गांवों के गरीब हैं, जो उन क्षेत्रों में रहते हैं, जहां नदियां समुद्र में मिलने से पहले कई धाराओं में टूटती हैं।
साभार : दथर्डपोलडाटनेट
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