Jan 20, 2016

पत्रकारिता करते हुये भी पत्रकार बने रहने की चुनौती

पुण्य प्रसून बाजपेयी
पत्रकारिता मीडिया में तब्दील हो जाये। मीडिया माध्यम माना जाने लगे। माध्यम सत्ता का सबसे बेहतरीन हथियार हो जाये। तो मीडिया का उपयोग करेगा कौन और सत्ता से सौदेबाजी के लिये मीडिया का प्रयोग होगा कैसे? 2016 में बहुत ही पारदर्शिता के साथ यह चुनौती पत्रकारिता करने वाले मीडियाकर्मियों के सामने आने वाली है। चुनौती इसलिये नहीं क्योंकि पत्रकारिता अपने आप में चुनौतीपूर्ण कार्य है बल्कि चुनौती इसलिये क्योंकि राजनीतिक सत्ता खुद को राज्य मानने लगी है। संस्थानों के राजनीतिकरण को राज्य की जरूरत करार देने लगी है। चुनावी जीत को संविधान से उपर मानने लगी है। यानी पहली बार संविधान के दायरे में लोकतंत्र का गीत राजनीतिक सत्ता के लोकतंत्रिक राग के सामने बेमानी साबित हो रहा है।


ऐसे में हर वह प्रभावी खिलाडी मीडिया को अपने अनुकूल बनाने की मशक्कत करने लगा है जिसे अपने दायरे में सत्ता का सुकून चाहिये। सत्ता को जहां लगे कि वह कमजोर हो रही है तो मीडिया से नहीं बल्कि मीडिया को माध्यम की तरह संभाले प्रभावी खिलाड़ियों से ही सीधे सौदा हो जाये। कह सकते हैं कि सब कुछ इतना सरल नहीं है। जो खतरे पत्रकारिता को लेकर लगातार बढ़ रहे हैं उसमें बहुत कुछ मीडिया मीडियाकर्मियों की अपनी समझ पर भी निर्भर करता है। लेकिन 2016 में यह सवाल और छोटा हो जायेगा कि पत्रकारिता की किस लिये जा रही है। जो रिपोर्ट छापी जा रही है उसका महत्व क्या है।

इसकी बारीकी को समझे तो जैसे खनिज संपदा की लूट के लिये आदिवासियों के साथ शहर के संवाद ही खत्म कर दिये गये और विकास की परिभाषा यह कहकर गढ़ी गई कि इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिये खनिज संपदा से लेकर आदिवासियों तक की सफाई जरूरी है। उसके बाद खेती की जमीन को भी निगलने के लिये पहले स्पेशल इक्नामी जोन, उसके बाद इक्नामिक कारीडोर और स्मार्ट शहर से लेकर अब आदर्श गांव तक की सोच ही इस तरह पैदा की जा रही है जहां खेती की जमीन पर खडे होते कंक्रीट को ही आदर्श हालात मान लिया जाये। यानी देश की उस सोच को ही माध्यमों के जरिये बदल दिया जाये जो अपने अपने दायरे में सत्ता है तो फिर देश की परिभाषा भी राजनीतिक सत्ता के अनुकूल गढने की कवायद आसानी से हो सकती है।

बहस की गुंजाइश ही नहीं बचती कि कोई रास्ता गांव का भी था। देश में आदिवासी भी रहते थे। रिपोर्ट शहरों के बढने पर तैयार होगी ना कि बढते शहरी गरीबों की वजहो को लेकर। यानी झटके में विकल्प की वह सोच ही मीडिया से गायब हो रही है जो सत्ता ही नहीं बल्कि संसद और विकास की नीतियो को लेकर कारपोरेट फार्मूले पर भी सवाल खड़ा करती रही है। इसमें और तेजी आ रही है क्योंकि बहुसंख्यक तबके के लिये नीति का मतलब नीति लागू कराने वालो की एक सोच हो चली है। ना कि जिनके लिये नीतियां बनायी जाती है उनकी कोई जरुरत या उनकी कोई सोच कोई मायने भी रखती हो।

इतना ही नहीं राजनीतिक सत्ता जिस तरह हर संस्थान को अपनी गिरफ्त में ले रही है, उसका असर कैसे मीडिया के माध्यम में तब्दील होने पर हो रहा है उसका बेहतरीन उदाहरण बिहार चुनाव के परिणाम के बाद लालू यादव की राजनीतिक ताकत से बने नीतिश मंत्रिमंडल का चेहरा है। सवाल यह नहीं है कि कानून के जरीये राजनीतिक तौर पर खारिज लालू यादव उस सामाजिक समीकरण को जीवित कर देते है जो दिल्ली की सत्ता के विकास मॉडल को खारिज कर दें। बल्कि सवाल यह है कि जिस मॉडल को राजनीतिक सत्ता तले दिल्ली सही बताती है और 2014 का जनादेश किसी सपने की तरह पांरपरिक राजनीति को हाशिये पर ढकेल देता है वही मॉडल उसी बिहार में 2015 के जनादेश तले हाशिये पर चला जाता है और वहीं पारपरिक राजनीति फिर से ना बदलने वाली हकीकत की तरह सामने आ जाती है। और झटके में यह सवाल बडा हो जाता कि इस दौर में पत्रकारिता किस समझ को जी रही थी। या मीडिया की भूमिका रही क्या।

यानी 2014-15 का पाठ तो यही निकला कि राजनीतिक सत्ता की जो दिशा होगी उसी हवा में मीडिया बहेगी। राजनीतिक सत्ता का सामाजिक मतलब चुनावी जीत-हार होगी। मीडिया का विश्लेषण भी उसी दिशा में होगा। यानी पत्रकारिता अगर 2015 में उन सवालो से बचती रही कि आखिर जो सीबीआई चार बरस तक अमित शाह को अपराधी मान कर फाइले तैयार करती रही तो फाइले मोदी की पीएम बनते ही बंद ही नहीं हुई बल्कि उसमें लिखा भी बदल गया।

2015 के बिहार जनादेश ने बाद पत्रकारिता इस सवाल पर भी खामोश हो गई कि आखिर वह कौन से सामाजिक समीकरण रहे जो विकास के नाम पर गरीबी को विस्तार भी देते रहे और सामाजिक न्याय का नारा लगाते हुये विकास को दरकिनार भी करते रहे । यह सवाल भी गौण हो गया कि गांव खेत में शिक्षा का नायाब प्रयोग 25 बरस पहले चरवाहा विघालय के नाम पर विधानसभा से निकला। 25 बरस बाद वही चरवाहा विघालय विधानसभा के भीतर नजर आने लगा। यहा सवाल यह उठ सकता है कि क्या राजनीतिक सत्ता के दायरे में ही मीडिया की महत्ता है । जाहिर है यह सवाल वाकई बडा है कि राजनीतिक सत्ता से इतर मीडिया कैसे काम करें । पत्रकारिता कैसी हो । क्योकि पत्रकारिता अगर देश के हर तबके को देख समझ रही है । यानी सत्ता के वोट बैंक से इतर विपक्ष की सोच को भी अगर आंक रही है तो यह सवाल व्यापक दायरे में देखा समझा जा सकता है कि क्या देश में हर सत्ता का दायरा अल्पसंख्यक सरीका ही है ।

राजनीतिक सत्ता के पक्ष में 50 फिसदी वोट नहीं है तो कारपोरेट पूंजी के मुनाफा बनाने के तौर तरीको के पक्ष में देश का बहुसंख्यक तबका नहीं है ।औघोगिक घरानो की जीने के अंदाज या उनके जरीये देश के संसाधनों के उपयोग से देश की नब्बे फिसदी आबादी का कोई वास्ता नहीं है। फिर ऐसा भी नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं के दायरे में देश के बहुसंख्यक तबके के हित साधे जा रहे हो । निचली अदालत से निकल कर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक तो देश का वही तबका पहुंच पाता है जिसकी आय देश की 80 फिसदी आबादी से उपर हो। स्वास्थय सेवा हो या शिक्षा देने के संस्थान। देश के 80 करोड वोटरो के लिये वह आज भी नहीं है । और इसी दायरे को अगर मीडिया घरानो में समेटा जाये तो उसके सरोकार भी देश के अस्सी फिसद आबादी से इतर ही नजर आयेंगे। यानी पहली बार लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी लोकतंत्र के बाकि तीन खम्मो की कतार में उसी तरह खड़ा किया जा रहा है जिसमें लोकतंत्र का राग सत्ता की आवाज में सुनायी दे। और मीडिया लोकतंत्र के राग को सत्ता के दायरे से बाहर होकर कैसे सुन सकता है।

पत्रकारिता राज्यसत्ता के प्रभाव से कैसे मुक्त हो सकती है। भारत जैसे देश को चलाने के लिये पूंजी से ज्यादा मानव संसाधन को तरजीह दी जानी चाहिये यह सवाल कैसे कोई रिपोर्ट उठा सकती है। जबकि खुद मीडिया घरानों का विकास पूंजी पर जा टिका है। और बतौर माध्यम अगर सत्ता अपना प्यादा मीडिया को बना रही है तो मीडिया घरानो के लिये भी पूंजी ही माध्यम को मजबूत बनाने का माध्यम बन चुका है। यानी 2014 के चुनाव के बाद से हर चुनाव ही कैसे सत्ता और लोकतंत्र का एसिड टेस्ट बनाया गया या बनाया जा रहा है उसे मीडिया क्या समझ नहीं पा रहा है। यकीनन पत्रकारिता उन हालातों को देख रही है कि कैसे सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में सिमट रही है। लेकिन राजनीतिक सत्ता ही लोकतंत्र हो और वहीं पूंजी का माध्यम बन जाये तो फिर मीडिया के सामने कैसे चुनौती होगी इसे महसूस करना भी आने वाले बरसों में मुश्किल होगा। मसलन सलमान खान की गाड़ी तले फुटपाथ पर सोये शख्स को किसने मारा।

इसका जबाब हाईकोर्ट के फैसले में दिखायी नहीं देता बल्कि सलमान खान की रिहाई के जश्न में मीडिया को जाता है। क्योंकि सलमान खान के फैन्स ही फैसले के बाद जनता के किरदार में नजर आते हैं। यानी पहली बार मीडिया के सामने यह भी चुनौती उभर रही है कि सूचना तकनीक के माध्यम से बनते और व्यापक होते समाज को वह कैसे सही या गलत माने। मसलन एक वक्त इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को अपनी जेबी पार्टी बनाने के लिये कांग्रेस के संगठन के बाहर से ही इतना दबाव बना दिया कि काग्रेस संगठन भी समझ नहीं पाया कि वह सही है या बाहर से दिरा के पक्ष में खड़ा होता समूह सही है । कमोवेश यही प्रयोग नरेन्द्र मोदी ने भी किया। बीजेपी संगठन के बाहर से मोदी फैन्स का दबाब ही कुछ ऐसा बना कि बीजेपी संगठन को भी सारे निर्णय मोदी के अनुकूल लेने पड़े। ध्यान दे तो पारंपरिक मीडिया भी कुछ इसी तर्ज पर सोशल मीडिया के दबाब में है।

दादरी से लेकर मालदा की घटना को लेकर सोशल मीडिया के दबाब में यह सवाल भी खडे होने लगे कि जिम्मेदारी मुक्त सोशल मीडिया कही ज्यादा जिम्मेदार है। यानी समाचार पत्र या न्यूज चैनलों की पत्रकारिता संदेह के घेरे में आ गई। हर किसी पर राजनीतिक प्यादा बनकर काम करने का आरोप सोशल मीडिया में लगने लगा। यानी पहली बार पत्रकारों के सामने चुनौती उस खुलेपन की सूचना को लेकर भी है, जो झटके में किसी भी पत्रकार, किसी भी मीडिया घराने या किसी भी रिपोर्ट को लेकर राजनीतिक सत्ता से जोड़ कर एक सामानांतर पत्रकारिता की लकीर खींच देती है । यानी पत्रकारिता करते हुये साख बनाने के संघर्ष पर साख पर बट्टा लगाने के तरीकों से जूझना कही ज्यादा मुश्किल हो चला है । और इसकी बारिकी को समझने के लिये लौटना उसी राजनीतिक गलियारे में पड़ रहा है, जिसकी जरुरत ने ही मीडिया को माध्यम में तब्दील कर अपना हित साधना शुरु किया है । यानी पहली बार मीडिया के सामने तीन चुनौती बेहद साफ है। पहला , चुनावी राजनीति के दबाब से मुक्त होना। दूसरा, पूंजी के दबाब से मुक्त होना। तीसरा, जन भागेदारी से मीडिया संस्थान को खडा करने की कोशिश करना।

यह तीन चुनौती मौजूदा पत्रकारिता के उस संकट को उभारती है, जिसमें मीडिया का घालमेल राजनीति और कारपोरेट पूंजी से कुछ इस तरह हो रहा है जिसमें पत्रकार राजनीति करने लगा है। राजनेता पत्रकारीय मापदंडों को तय करने लगा है और पूंजी राजनीति और मीडिया दोनो का आधार बन चुकी है । वजह भी यही है कि मौजूदा मीडिया राजनेताओं और उघोगपतियों से इतर कुछ कार्य करता नजर नहीं आता। और राजनीतिक सत्ता पाने के बाद मीडिया की जरुरत राजनेताओं के लिये किस रुप में रहती है यह इससे भी समझा जा सकता है कि पीएम बनने के बाद से नरेन्द्र मोदी ने कत्र कोई पत्रकार वार्ता नहीं की। नीतीश कुमार ने सीएम बनने के बाद किसी पत्रकार को कोई इंटरव्यू नहीं दिया। वसुधरा राजे सिंधिया ने सीएम बनने के बाद से कोई प्रेस कान्फ्रेस नहीं की। केजरीवाल ने अपनी राजनीति को ही मीडिया के खिलाफ बनाकर जनता के पैसे पर एक न्यूज चैनल के खिलाफ उन्ही अखबारो पर पन्ने भर का विज्ञापन देने में कोताही नहीं बरती जिन अखबारों को वह कारपोरेट की काली कारतूत की उपज बताते रहे। यानी मीडिया के अंतर्विरोध।

राजनीति सत्ता की अपनी कमजोरी को ताकत में बदलने के लिये मीडिया का उपयोग। और कारपोरेट पूंजी का धंधे के लिये मीडिया का प्रयोग। इन हालातों को बदले के लिये कौन सा तरीका कैसे और किस रुप में उठाया जाये। यह समझ पैदा करनी होगी । अन्यथा पत्रकारीय विश्लेषण का दायरा 2016 में बंगाल-असम चुनाव की जीत हार पर टिकेगा। 2017 में यूपी चुनाव को मोदी का सेमीफाइनल मान लिया जायेगा। और चुनावी जीत हार के दायरे में ही विदेशी निवेश या स्वदेशी पर चर्चा होगी। मंदिर तले हिन्दू राष्ट्र तो विकास तले आर्थिक सुधार पर बहस होगी। और देश के वह सवाल हाशिये पर चले जायेंगे जिसे चुनावी दौर में भावनाओ के उभार के लिये उठाये तो जाते है लेकिन सत्ता में आने के बाद भुला दिये जाते हैं। शायद मीडिया के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह देश में राजनीतिक सत्ता की बिसात के तरीके बदल दें। क्योंकि तमाम मुद्दो के बीच देश के हर क्षेत्र में सवाल न्याय ना मिलने का हो चला है।

इंसाफ का सवाल देश के उस अस्सी फिसद लोगों से जुड़ा है जिनके लिये इंसाफ का मतलब भी रोटी ही है। यानी हर दिन रोटी चाहिये तो हर क्षेत्र में इंसाफ भी चाहिये। हर पल चाहिये। हर दिन चाहिये। और यह सरोकार मीडियाकर्मियों के नहीं रहे । पत्रकार की द्दश्टी पत्रकारिता को तकनीक के आसरे मापने लगी है। इसलिये उसके जहन में बदलती पत्रकारिता का मतलब 3 जी के बाद 4 जी आना भी हो सकता है। न्यूज चैनलो को अखबार सरीखा बनाना और समाचार पत्र को न्यूज चैनल से सरीखा बना देना भी हो सकता है। लगातार सोशल मीडिया पर खुलती अलग अलग न्यूज पोर्टल भी हो सकते है। इंटरनेट की तेजी से सूचनाओ के जल्दी पहुंचने या पहुंचाने से भी हो सकता है। इंटरएक्टिविटी के जरीये दर्शक-पाठक के बीच संवाद में तेजी भी ला सकती है और इसे भी पत्रकारिता के नये आयाम से जोडा जा सकता है यह सोच भी पैदा होगी। लेकिन समझना यह भी होगा कि तकनीक पत्रकारिता नहीं होती। सूचना की तेजी का मतलब मीडिया के सरोकार नहीं होते। सरोकार या देश की जमीन से संवाद की कमी ने ही पत्रकारिता के माप-दंड बदलने शुरू किये।

मनमोहन सिंह के दौर में बडी तादाद में पत्रकार कारपोरेट सेक्टर के लिये काम करने लगे। और उन्होंने भी माना कि जब मीडिया घराने ही कारपोरेट के कब्जे में जा रहे हैं। या फिर पत्रकारिता का मतलब ही अलग मुनाफा साधना हो चला है तो सीधे कारपोरेट के हित साधने के लिये उसी से क्यों ना जुड़ जाया जाये। वहीं अब यानी मोदी के दौर में सोशल मीडिया की पत्रकारिता ही महत्वपूर्ण बना दी गई। तो हर नेता को फेसबुक चलाने से लेकर सोशल मीडिया में छा जाने के लिये पत्रकारो की एक फौज चाहिये। सत्ता चलाने वाले हो या सत्ता पाने के लिये संघर्ष करने वाले नेता कमोवेश हर किसी की अपनी अपनी सोशल साइट्स चल पड़ी हैं।

2016 बीतते बीतते हर विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लिहाज से नेता अपने काम को दिखाने बताने के लिये पोर्टल या साइट्स शुरू कर चुके होंगे। यानी एक तरफ पत्रकारिता का वह मिशन जो सत्ता पर निगरानी रखते हुये देश के मुद्दों को सतह पर लाये। जिससे अपराध-भ्रष्टाचार या विकास के नाम पर खुद को लाभ पहुंचाने की सत्तधारियों की पहल के खिलाफ सामाजिक दबाब बनाया जा सके। वही दूसरी तरफ सत्ता के अनुकुल, मुनाफा बनाने की सोच और विकास तले अपराध-भ्रष्ट्रचार को गौण मानकर सत्ताधारियों को देश करार देने की सोच। तो लकीर कहीं मोटी होगी तो कहीं इतनी महीन जिसे परखना भी पत्रकारिता हो जायेगी यह किसने सोचा होगा। शायद इसीलिये सबसे बड़ी चुनौती तो यही है मीडिया संस्थानों से जुडकर पत्रकारिता करते हुये भी पत्रकार रहा जाये।

लेखक पुण्य प्रसून बाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनके ब्लाग से साभार. 

No comments:

Post a Comment