Jan 5, 2016

पत्रकारिता.... जिंदगी झंड बा फिर भी घमंड बा

पत्रकार लोकतंत्र का चौथा खंभा होता है। पत्रकार के जिम्मे समाज के निर्माण और उसकोे बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है आदि उपदेश आयेदिन पिलाये जाते हैं ।  चलिए एकबार मान भी लें कि पत्रकार हमारे लोकतंत्र का चौथा खंभा होता है तो यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि आजादी के पैंसठ साल भी लोकतंत्र का तथाकथित यह चौथा खंभा बाकी तीनों खंभों की तुलना में इतना घुना हुआ क्यों है? इतना बेचारा क्यों है? इतना निरीह क्यों है?


आज मीडिया में काम करने वाले की आर्थिक स्थिति इतनी खराब क्यों है? आजादी की लडाई में मीडिया की भूमिका कार्यपालिका की तुलना में सकारात्मक रही है।  ज्यादा पीछे न भी जाएं तो 25-30 साल  यानी ९० के दशक में गठित पालेकर वेजबोर्ड ने उप संपादक जो कि अखबार का सबसे छोटा कर्मचारी होता है का वेतन प्रवक्ता (शायद इंटर कालेज) से थोडा ही सही ज्यादा था । आज इंटर कालेज का प्रवक्ता 60-65 हजार पाता है तो अपने आप को देश का सर्वाधिक पढा जाने वाले अखबार दैनिक जागरण का उप संपादक 20-25 हजार से ज्यादा नहीं पाता है। 20-25 साल एक ही अखबार में काम करने के बाद भी उसकी नौकरी में स्थिरता नहीं रहती । मालिक जब चाहे तब दूध में पडी मक्खी की तरह निकाल फेंकता है । हाल फिलहाल दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा से सैकड़ों लोग निकले जा चुके हैं।

सवाल यह भी है कि जब स्कूल और अस्पताल के लिए मानक है तो फिर अखबार या न्यूज चैनल के लिए क्यों नहीं है ? और अगर है तो मालिक मानते क्यों नहीं और सरकार मनवाती क्यों नहीं ? मसलन एक संस्करण वाले और बहु संस्करण वाले अखबार में कितने कर्मचारी होंगे ? परिवहन निगम में मानक है कि एक बस के पीछे कितने कर्मचारी होने चाहिए यानि एक बस इतने कर्मचारियों को पालती है। एक कक्षा में छात्र संख्या पर टीचर का मानक तय है लेकिन १६ पेज वाले अखबार में कितने कर्मचारियों का होना जरूरी है यह तय क्यों नहीं ? नतीजा कर्मचारियों को गधे की तरह काम करना पडता है।

कितना अजीब है समाज में लोग पत्रकार को बुद्धिजीवी कहते और समझते हैं लेकिन वह गवर्न होता है राज्य के श्रम विभाग से। उसपर लागू होता है श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम १९५५ । इस अधिनियम के तहत काम के घंटे छह है। वो भीई दिन की पारी के रात के तो और भी कम है। वो कौन अखबार जो अपने कर्मचारी से छह घंटे काम लेता है? अखबार जगत में एक जुमला है आने समय तो है लेकिन जाने का नहीं। जबकि काम के घंटे को लेकर ही सैकड़ों साल पहले शिकागो की महिला कार्यकत्रियों ने हडताल की थी जिसकी याद में हम आज मई दिवस मनाते हैं यानि शोषण के खिलाफ अवाज उठाते हैं। कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है तो क्या यह मान लिया जाए कि इतिहास अपने आपको दोहराएगा । शोषण के खिलाफ आवाज उठेगी ?

विभा 'अरुण

No comments:

Post a Comment