Apr 11, 2016

हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था?

कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद से एक बार फिर से अपने सबसे मुश्किल दौर में जी रही है। कांग्रेस की जो हालत 2014 के आम चुनावों में हुई थी, उससे कहीं ज्यादा बुरी 2016 में हो रही है। 2014 के बाद से कांग्रेस ने हर जगह ठोकरें ही खाई है। कांग्रेस उस हर जगह कमज़ोर होती चली गई जहाँ उसकी जडें मज़बूत थी। एक के बाद एक लगातार हुई हार से कांग्रेस अपना आत्मविश्वास और जनता में अपना विश्वास खोती चली गई। हालाँकि इसी तरह का मंज़र कांग्रेस 1977 के आम चुनाव में भी देख चुकी थी जब इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल लगा दिया गया और इस आपातकाल के विरोध में जनता ने कांग्रेस का तख्तापलट कर केंद्र में जनता पार्टी की सरकार को बैठा दिया। लेकिन इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 351 सीटें जीतकर सत्ता में वापसी की। हालाँकि 1977 का दौर अलग था और 2014 का दौर अलग। बुद्धिजीवियों द्वारा कांग्रेस की 1980 की सत्ता वापसी का उदहारण देते रहे और कांग्रेस के पुनर्जन्म की भविष्यवाणियां करने लगे। लेकिन कांग्रेस पार्टी की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए 2019 में कांग्रेस के पुनर्जन्म होने की भविष्यवाणी या अटकलें लगाना शायद सही नहीं होगा।

          कांग्रेस अभी जिस दौर में जी रही है, यह वही दौर है जब अपने , अपने ही नहीं रहे। यह जगजाहिर है कि कांग्रेस में कई गुट और धड़ काम कर रहे हैं जिस कारण कांग्रेस को विरोधियों की आवश्यकता ही नहीं है। और हालिया घटनाओं ने इस तथ्य पर आईएसआई मार्क लगा दिया है। उत्तराखंड में कैसे कांग्रेस आंतरिक विद्रोह के चलते अपनी सत्ता गवाने के अंतिम मोड़ पर है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगे होने के बावजूद हाइकोर्ट ने पार्टियों को बहुमत साबित करने को कहा है। यदि कांग्रेस अपना बहुमत साबित करने में सफल हो जाती है तो इससे अच्छी ख़ुशी की बात क्या होगी। लेकिन यदि वो ऐसा करने में असफल हो गयी तो कांग्रेस के हाथ से एक और बड़ा राज्य चला चला जाएगा।
       अभी एक महीने पूर्व ही कांग्रेस ने आंतरिक बगावत के चलते अरुणाचल प्रदेश में अपनी सत्ता गवाई है। अरुणाचल प्रदेश में नाबाम टुकी की सरकार से उन्ही के विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया और इन बागी विधायकों को बीजेपी के 11 विधायकों ने समर्थन देकर 19 फरवरी को कलिखो पुल को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। आंतरिक विद्रोह और गुटबाजी इतनी खतरनाक साबित होगी , यह शायद कांग्रेस ने कभी सोचा भी नहीं होगा। उत्तराखंड में कांग्रेस जिस बागी तेवर का सामना कर रही है वो राज्य के गठन के वक़्त से ही है। वो तो कांग्रेस के उस समय के कुशल नेतृत्व ने इस गुटबाजी को कभी बाहर नहीं आने दिया। राज्य के गठन से अब तक के 16 सालों में राज्य ने 8 मुख्यमंत्री देखे हैं। और इसी तरह की गुटबाजी कांग्रेस पार्टी में राज्यस्तर और राष्ट्रीयस्तर पर भी है। ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ पार्टी के अंदर गुटबाजी देखने को न मिले। और राष्ट्रीय स्तर पर भी राहुल गांधी और सोनिया गांधी को पसंद करने वाले नेता बटें हुए हैं। जिसमे एक धड़ ऐसा भी है जो प्रियंका गांधी का समर्थन करता है।
      कांग्रेस को इस वक़्त एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जिसकी स्वीकार्यता प्रत्येक कार्यकर्ता तक हो। लेकिन फ़िलहाल अभी ऐसा कोई भी नेता नहीं है। पार्टी के वरिष्ठ नेता भी राज्यसभा में बैठे हुए हैं और बाकि जो लोकसभा सांसद है वो भी अपनी अच्छी किस्मत के भरोसे बैठे हुए हैं। और राहुल गांधी की स्वीकार्यता उतनी नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। राहुल गांधी के साथ एक बड़ी समस्या है कि वो राजनीती को पार्ट टाइम जॉब की तरह लेते हैं, जिस कारण उनकी स्वीकार्यता और विश्वसनीयता पार्टी के साथ साथ देश में भी नहीं हैं और न ही राहुल गांधी में अभी फ़िलहाल तो किसीको भी भविष्य का नेता नज़र नहीं आता। और न ही राहुल जी अभी इतने परिपक्व हैं कि वो 2019 में कांग्रेस का चेहरा बनकर उसे पुनर्जीवित कर सकें और नरेंद्र मोदी जैसे एक कुशल नेता को कड़ी टक्कर दे सकें।
           सच तो यही है कि कांग्रेस अभी तक 2014 में हुई हार का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई है। उसी का परिणाम है कि कांग्रेस आज एक- एक सीट की मोहताज हो चुकी है जिस कारण उसे चुनावों में किसी न किसी दल के साथ गठबंधन करने की जरूत पड़ रही है। कांग्रेस को आज पार्टी के अंदर चल रही गुटबाजी खत्म करने और प्रत्येक कार्यकर्ता में एक आत्मविश्वास जगाने की आवश्यकता है। और यदि कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाई तो अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस को अकेले और एक ही नारे के दम पर लड़ना पड़ेगा और वह नारा होगा - "हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था।"

प्रियंक द्विवेदी
भोपाल
8516851837

No comments:

Post a Comment