Apr 11, 2016

भारत, माता और धर्म

- सुनील संवेदी
इस्लामिक देश सऊदी अरब में प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के सामने टाटा कंसल्टेंसी सर्विस में ‘भारत माता की जय’ के नारों से एक बात तो साबित हो गई कि भारत में जो लोग भारत माता को धर्म से जोड़कर जय न बोलने की मजबूरी जता रहे हैं असल में वे लोग हमेशा की तरह अपनी धर्मांधता को बचाये रखने और भाईचारे की जिम्मेदारी को दूसरों के सिर थोपे रहने की चिरपरिचित जद्दोजहद में जुटे हैं। यह स्थिति बिल्कुल ऐसी ही है कि हम भारत की जमीन को भोगेंगे मगर होंगे नहीं क्योंकि भारत हमारे प्रतिद्वंदी की ‘देवी’ तुल्य ‘माता’ है।

‘शब्द’ अपने अर्थ के साथ अक्षुण्य होते हैं। अगर कोई ये सोचता है कि वह किसी अन्य पैरलर शब्द को बोलकर खुद को सभ्य, उपयोगी, संविधान में आस्था रखने वाला और इन सबसे ऊपर देश के प्रति अन्य की तरह ही जिम्मेदार ‘साबित’ कर रहा है तो कई बार ‘शब्द’ का प्रवाह ही ‘नीयत’ की चुगली कर देता है। इन दिनों ‘जय हिंद’ का चलन जोरों पर है। ‘जय हिंद’ बहुत ही प्रभावी और स्वीकार्य शब्द है। आजादी के बाद इसे पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों ने देश के प्रति अपने ंजज्बे को बरकरार रखने के लिए इस्तेमाल किया। भाषणकर्ता भी ‘जय हिंद जय भारत’ का प्रयोग अपने विचारों को प्रभावी बनाने के लिए करते हैं।

सुभाष चंद्र वोस ने अपने लड़ाकुओं के भीतर देश के लिए जंग की आग को जलाये रखने के लिए ‘जय हिंद’ का नारा दिया लेकिन ये आमजन का शब्द कभी नहीं रहा। पिछले कुछ समय से इस शब्द का प्रयोग बहुतायत से होने लगा है वह भी ‘हिंद की जय’ के अर्थ में नहीं बल्कि ‘हिंदू’ नमस्ते के ‘प्रतिद्वंदी’ के अर्थ में। समझ लेना जरूरी है कि भारत में पिछले कुछ समय से अन्य बातों के साथ ही अभिवादनों का भी धार्मिक बंटवारा कर लेने की कोशिशें शुरू हुई हैं। ‘जय हिंद’ उसी का नतीजा है। ऊपर लिखा है कि ‘शब्द’ का प्रवाह ही ‘नीयत’ की चुगली कर देता है।
असदुद्दीन ओवैसी ने भारत माता की जय को लेकर जो बयान दिया था उस के पीछे धार्मिक मजबूरी नहीं बल्कि धार्मिक बंटवारे की ही नीयत है। चूंकि भारत के साथ माता लगते ही ‘हिंदू’ हो गया इसलिए इसे बोलना गैर मजहवी हो जाता है। ओवैसी या किसी मुस्लिम संस्था ने हांलाकि अभी ये नहीं बताया कि ‘हिंदुओं की माता’ की जय बोलने से उनकी धार्मिकता अगर प्रभावित होती है तो ‘भारत की जय’ बोलने में कोई धार्मिक दिक्कत है या नहीं।
धार्मिक बंटवारे की ये कोशिश नई नहीं है। 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन तक गांधी जी को महात्मा के रूप में जाना जाने लगा था और वह राजनीति के शिखर पुरूष हो गये थे। अधिवेशन में लगभग सभी वक्ताओं ने गांधी को महात्मा कहकर संबोधत किया। मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘महात्मा’ शब्द को धार्मिक बताकर बोलने से इंकार कर दिया और मिस्टर मोहनदास कर्मचंद गांधी कहकर संबोधित किया। चूंकि उस समय स्थिति भिन्न थी इसलिए किसी ने उक्त घटना को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन देश के धार्मिक आधार पर बंटवारे में जिन्ना की भूमिका के बाद नागपुर अधिवेशन मंे जिन्ना द्वारा महात्मा न कहने के ‘पीछे के भाव’ को जाहिर कर दिया कि असल में महात्मा शब्द धार्मिक नहीं था बल्कि जिन्ना द्वारा उसे धार्मिक कहना भीतर की आग को जलाये रखने के लिए जरूरी था। अल्लामा इकबाल को भी तब तक हिंदोस्तां सारे जहां से अच्छा लगा जब तक कि धार्मिक बंटवारे की नीयत सामने नहीं आ गई।
जेएनयू मामले को लेकर एक न्यूज चैनल पर बहस के दौरान एंकर ने जब जेएनयू को शिक्षा का मंदिर कहा तो झट से एक मौलाना ने कड़ा विरोध जताया कि मंदिर क्या होता है, संस्थान बोलिए। मुस्लिम समुदाय के विद्वान भी स्कूलों को शिक्षा का मंदिर कहते रहे हैं तो अब इस ऐतराज का क्या कारण है। मंदिर धार्मिकता से ज्यादा पवित्रता का ़द्योतक है। धरती को माता और आसमान को पिता कहना सदियों से भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहे हैं और इसमें हिंदू-मुसलमान का भेद कभी नहीं रहा।
हिंदू ‘मातृभूमि’ की न सही अंगे्रजी के ‘मदरलैण्ड’ और ‘मादरे वतन’ की जिंदाबाद तो संभवतः सभी इस्लामिक राष्ट्रों में मान्य होगा। उद्घोषों का धार्मिकता के आधार पर इस तरह बंटवारा समझ में न आने या फिर नासमझी का प्रदर्शन करने लायक बात है कि आखिर अब ऐसी क्या बात हो गई कि देश के एक-एक नागरिक द्वारा देश के प्रति जिस भाव को सदैव जीवित रखा जाना चाहिये था उसे भी धार्मिक आधार पर बांट लिया।
हमारे एक मुस्लिम प्रोफेसर मित्र ने कहा कि भारत माता को एक ‘देवी’ के रूप में चित्रित किया गया है इसलिए ‘जय नहीं बोलने’ के तर्क बकवास हैं। भारत माता किसी धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली देवी नहीं है जिसके लिए कोई उपवास या पूजा पाठ करता हों। वह देश का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए जय बोलने में कोई गुनाह नहीं है बल्कि धर्म का खौफ दिखाकर लोगों को बरगलाना गुनाह है। उन्होंने कहा कि भारत माता की जय न कहने के पीछे असल बजह खुद को दूसरों से किसी भी हाल में अलग रखने की जद्दोजहद है, बस्स...। उन्होंने गंभीर चिंता जताई कि अगर ‘जन,गण, मन’ के स्थान पर ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रगान होता, तब करोड़ों लोग खुद को राष्ट्र द्रोही बना लेते। यहीं उन्होंने एक सवाल भी छोड़ दिया कि उन्हीं करोड़ों लोगों को राष्ट्रद्रोह के आरोपों से बचाने के लिए ही तो कहीं जन, गण, मन को राष्ट्रगान नहीं बनया गया।

suneel samvedi
suneelsamvedi@gmail.com

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