Dec 5, 2015

सहारा के 25 साल : हाल बेहाल

-कुमार कल्पित-
किसी और सभ्यता_संस्कृति के विषय में तो मालूम नहीं लेकिन भारतीय संस्कृति में २५ साल का बहुत महत्व होता है। तीज त्योहार के शौकीन हम भारतीय यूं भी कोई अवसर नहीं खोना चाहते । बात हम भारतीयता की भावना से ओत प्रोत होने का दंभ भरने वाले सहारा इंडिया परिवार के नियंत्रण वाले राष्ट्रीय सहारा की कर रहे। हैं। यह अखबार इस साल अपने प्रकाशन (१९९१) का २५वां वर्ष (देखे हर पृष्ठ पर २५ वर्ष वाला लोगों) मना रहा है।


२५ साल यानी रजत जयंती वर्ष। याद करिये आज से २५ साल पहले का दिन महीना तारीख । हो सकता है कुछ लोगों को याद हो राजधानी की सडकों पर लगे बोर्ड और उनपर लिखे हर्फ (शब्द)। " ये एक और अखबार नहीं , रचनात्मक आंदोलन है "

कहां गया वह रचनात्मक आंदोलन जिसको लाने के दावे के साथ इसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए १९९२ में इसी तरह के विज्ञापन से लखनऊ को भी पाट दिया। किसी खास अवसर पर अपनी उपलब्धियों का बखान करना हमारी परम्परा रही है। चूंकि अखबार पर हक सिर्फ मालिकों का ही नहीं पाठकों का भी होता है इसलिए एक पाठक की हैसियत से भी यह जानने का अधिकार है कि इन २५ वर्षों में इस अखबार ने क्या पाया क्या खोया पाया ?

सुप्रसिद्ध कथाकार/संपादक कमलेश्वर से शुरू हुआ राष्ट्रीय सहारा सालों साल रिपोर्टर से रातोंरात संपादक बने रणविजय सिंह पर क्यों टिका रहा? एक बडे समूह से जुडे होने के बाद भी यह सात जगह से ही प्रकाशित हो रहा है । जबकि इसके बाद अपना विस्तार करने वाले हिंदुस्तान का प्रकाशन केंद्र इससे दोगुना ज्यादा है। फरवरी १९९२ इसने लखनऊ संस्करण की शुरुआत की इसके बाद अमर उजाला का कानपुर संस्करण शुरू हुआ। संस्करणों के हिसाब से यह सहारा से तीन चार गुना तो सम्पत्ति के मामले में सैकड़ों गुना आगे है। फिर भी हर जगह नीचे से नम्बर वन है ।

रजत जयंती वर्ष खुशियां मनाने का होता है। अपनी खुशियों में दुश्मन को भी शामिल करने का होता है। ऐसा नहीं कि इस संस्थान को खुशियां मनाने का अवसर न मिला हो या मनाया न हो। छोटे छोटे आयोजनों लाखों नहीं करोडों लुटा देने वाले इस संस्थान में आज भी पांच पांच हजार के काम करने वाले लोग मिल जाएंगे। १० १० साल लोगों को नियमित नहीं किया जाता, लोगों का प्रमोशन नहीं किया जाता। सालों पुराने कर्मचारियों को दूध में पडी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है। नियमित कर्मचारियों को उसका देने के बजाय मारने के चोर रास्ते निकाले जाते हैं । फिर भी यह अपने को पारिवारिक भावना वाला संस्थान कहता है। व्यवसाय में चाहे हजार गुना वृद्धि हो लेकिन सरकार द्वारा तय सीमा में ही देता है।

इस संस्थान का दावा है कि यह अपनी आय का एक अच्छा खासा हिस्सा सामाजिक कार्यों और कर्मचारियों के कल्याण पर खर्च करता है लेकिन हकीकत इसके उलट है। अपने दोनों बेटों की शादी में इस संस्थान ने कई हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिये । हो सकता है कि यही इसका सामाजिक कार्य हो। खिलाडियों (जो खुद करोडों में खेल रहे होते हैं) को किलो में सोना देने के लिए इनके पास अथाह पैसे हैं लेकिन जिन कर्मचारियों के बल पर संस्था का अस्तित्व है उसको बोनस देने के लिए इसके पास पैसे नहीं हैं। कर्मचारियों को वेतन देने के खजाना खाली है लेकिन छापे में १४६ करोड रुपये पकडा जाता है वो भी एक कार्यालय से। बहरहाल, जिस अखबार को अपने रजत जयंती वर्ष में सेल्फ ऐक्जिट प्लान के बहाने अपने सैकड़ों कर्तव्ययोगी साथियों को बाहर का रास्ता दिखाना पड रहा हो , आयेदिन नए नए प्रयोग करने पड रहे हों , पिद्दियों को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना पड रहा हो उस अखबार या मीडिया हाउस की दशा और दिशा का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

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