Dec 5, 2015

अखिलेश के दावों के विपरीत है यूपी का सियासी इतिहास, यूपी है बदलाव पसंद, अच्छा लगता है सत्ता परिवर्तन

अजय कुमार, लखनऊ
     
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी धीरे-धीरे सियासी होते जा रहे है।कभी वह यूपी में महागठबंधन का शिगूफा छोड़ देते हैं तो कभी किसी कार्यक्रम के दौरान कांगे्रस के युवराज और पीएम बनने का सपना पाले राहुल गांधी की मौजूदगी में ही कांगे्रस के सामने प्रस्ताव रख देते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में अगर मुलायम को पीएम बनाने और राहुल गांधी को डिप्टी पीएम बनाने पर कांगे्रसी राजी हो जाते हैं तो मैं (समाजवादी पार्टी) कांग्रेस से गठबंधन के लिये अभी हां कहता हॅू।अखिलेश की बात का राहुल कोई उत्तर नहीं दे पाये।

शायद  अखिलेश को इस बात का अहसास है कि वह अपने पिता को पीएम बनने का सपना कांग्रेस के बिना पूरा नहीं कर सकते हैं, जबकि यूपी की गद्दी हासिल करने के लिये राज्य में मरणासन पड़ी कांगे्रस की उन्हें जरूरत नहीं पड़ेगी। इसी लिये कांगे्रस के साथ लोकसभा चुनाव में हाथ मिलाने की बात करते समय अखिलेश 2017 के विधान सभा चुनाव में कांगे्रस से गठबंधन की बात टाल देते हैं।अखिलेश के उक्त बयान को कुछ लोग शिगूफा बता रहे हैं तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो यह मानकर चल रहे हैं कि कांगे्रस और समाजवादी पार्टी के नेता बिहार के मुख्यमंत्री और दिल्ली का सपना देखने वाले नीतीश कुमार के कद को छोटा करने और लालू यादव को सबक सिखाने की चाहत में सियासी हमसफर बन सकते हैं।सपा नेता भूले नहीं है कि किस तरह से लालू यादव के चलते 1999 में मुलायम सिंह यादव पीएम बनते-बनते रह गये थे।


उस समय के घटनाक्रम को याद किया जाये तो तब किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था।कांगे्रस गैर भाजपा दलों के सहारे  सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी।करीब-करीब सभी दलों के नेता तैयार भी हो गये थे,परंतु मुलायम सिंह यादव ने ऐन वक्त पर सोनिया गांधी का विरोध शुरू कर दिया और स्वयं प्रधानमंत्री बनने के लिये मैदान में कूद पड़े,लेकिन सोनिया के साथ खड़े लाले को मुलायम का यह पैतरा अच्छा नहीं लगा और उन्होंने मुलायम को पीएम के रूप में समर्थन देने से इंकार कर दिया था।

खैर,यह सब इतिहास है। बात वर्तमान की कि जाये तो उत्तर प्रदेश की 16 वीं विधान सभा का कार्यकाल खत्म होने में भले ही एक वर्ष से कुछ अधिक का समय बचा है,लेकिन राजनैतिक दलों के बीच रस्साकसी अभी से शुरू हो गई है। सभी दलों के नेता अपने-अपने हिसास से ताल ठोंक रहे हैं। सीएम अखिलेश यादव दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार ने विकास पर विशेष ध्यान दिया है। इस लिये 2017 में भी जीत का सेहरा उनकी ही पार्टी के सिर बंधेगा।अखिलेश के लिये ऐसा सोचना गलत भी नहीं है।आखिर वह समाजवादी पार्टी और सरकार के ‘सेनापति’ हैं।सेनापति कभी हथियार नहीं डालता है।यह हकीकत है,लेकिन सच्चाई यह भी है कि उत्तर प्रदेश की जनता बदलाव पसंद है।वह एक बार जिस नेता और दल को कुर्सी पर बैठाती है, दूसरी बार उससे कुर्सी छीन भी लेती है।यूपी देश का अकेला ऐसा राज्य होगा,जहां कोई भी नेता लगातार दो बार सीएम नहीं बन पाया। 1952 पहली विधान सभा से आज तक यह सिलसिला जारी है।(एक बार अपवाद को छोड़कर जब मायावती 12 वीं और 13वीं विधान सभा में क्रमशः 137 और 184 दिनों के लिये दो बार सीएम बनी थीं।तब भी माया के दो बार सीएम बनने के बीच करीब डेढ़ वर्षो तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा था।)इतिहास इस बात का गवाह है।अगर इतिहास के आधार पर कहा जाये तो अखिलेश की वापसी मुश्किल दिखती है,क्योंकि यूपी की बदलाव पसंद जनता को बार-बार सत्ता परिवर्तन काफी रास आता है,लेकिन सच्चाई यह भी है कि राजनीति में जो आज तक नहीं हुआ वह आगे भी नहीं होगा।इसकी कोई गारंटी नहीं है।भारतीय राजनीति उसमें भी यूपी की सियासत किसी निर्धारित पैरामीटर पर नहीं चलती है।अखिलेश युवा हैं।काम भी कर रहे हैं।अब सुपर सीएम जैसी बात भी खत्म हो गई है।चाहें सही हो या फिर गलत अखिलेश बिना दबाव के फैसले ले रहे हैं। 2017 में समाजवादी पार्टी किस रणनीति के साथ मैदान में उतरेगी,इसकी रूपरेखा दिखाई पड़ने लगी है।सपा नेताओं की तरफ से चुनावी मोर्चे पर विकास की बात होगी तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जातिवाद का भी खाका तैयार किया जायेगा।

यह सच है कि बिहार में भाजपा को मिली करारी हार के बाद यूपी में भी सियासी माहौल बदला है।लोकसभा चुनाव के बाद यूपी में ‘लीड’ लेती दिख रही भारतीय जनता पार्टी बिहार के नतीजों के बाद बैकफुट पर है। बिहार में किरकिरी के बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी को लेकर रणनीति बदल दी है। बिहार में नीतीश कुमार का विकास और बाहरी बनाम बिहारी का नारा सफल रहा। यूपी में ऐसे नारे और बातें खोखली साबित हों इसके लिये बीजेपी आलाकमान स्थानीय लीडरशीप को भी तवज्जो दे रहे हैं।इसके अलावा भाजपाई अभी से अखिलेश सरकार को विकास और कानून व्यवस्था के मुद्दे पर घेरने में जुट गये है। धरना-प्रदर्शन करके अखिलेश सरकार की नाकामी का ढिंढोरा पीटा जा रहा है।कानून व्यवस्था के मसले सपा सरकार की फजीहत की जा रही है तो आजम के बहाने बीजेपी वाले  वोटों के धुू्रवीकरण का भी प्रयास हो रहा है।बीजेपी नेताओं की तरफ से बाबा साहब अम्बेडकर को अपना बनाकर लोगों लोगों के दिमाग में यह बात बैठाने की कोशिश की जा रही है कि भाजपा को सिर्फ ब्राह्मणों-सवर्णों की पार्टी न माना जाये।इसके अलावा बीजेपी आलाकमान द्वारा समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को कभी अपने करीब औिर कभी दूर दिखाकर सपा के प्रति मुस्लिम वोटों में संशय पैदा किया जाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है। भाजपा रणनीति के तहत यह सब कर रही है तो सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने बिहार में जिस तरह से महागठबंधन से दूरी बनाई उससे भी समाजवादी पार्टी का वोटर आश्ंाकित नजर आ रहा है।

बीजेपी ही नहीं बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती भी मुस्लिम वोटरों के बीच सपा को लेकर आशंका के बीज बो रही हैं।सपा और भाजपा वाले मिले हुए हैं,यह बात साबित करने का माया कोई भी मौका नहीं छोड़ती हैं।बसपा सुप्रीमों के चलते ही केन्द्र और राज्य के संबंधों में भी मजबूती नहीं आ रही है।इसका ताजा उदाहरण है जीएसटी बिल पर समाजवादी पार्टी के विरोधी तेवर।मायावती ने जैसे ही जीएसटी के समर्थन की बात कही सीएम अखिलेश यादव ने जीएसटी का विरोध शुरू कर दिया। बात बिहार से इत्तर उत्तर प्रदेश से की कि जाये तो बिहार का पड़ोसी राज्य होने के बाद भी यूपी और बिहार की राजनीति में जमीन-आसमान का फर्क है।बिहार में जहां कांगे्रस, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल युनाइटेड भारतीय जनता पार्टी को अपना दुश्मन नंबर वन मान कर चल रहे थे,वहीं यूपी में सपा को भाजपा के मुकाबले कांगे्रस से अधिक एलर्जी है।मुलायम कई बार इस बात का अहसास भी करा चुके हैं। इसी वजह से अपने ही दल के नेताओं की ओर से महागठबंधन की हवा बनाने के बाद सपा नेतृत्व की ओर से यह स्पष्ट करने में देरी नहीं की गई कि सपा अपने पांच साल के कामकाज के बूते पर चुनाव जीतेगी।उसे किसी का भी सहारा नहीं चाहिए है। लेकिन सवाल यह भी उठ रहे हैं कि क्या समाजवादी पार्टी सचमुच ऐसी मजबूत स्थिति में है कि वह अकेले अपने दम पर दोबारा सत्ता में वापसी का ख्वाब देख सकती है?

कई बार ऐसा लगता है कि अपने प्रचार तंत्र की कामयाबी और चुनावी प्रबंधन को लेकर सपा उसी तरह की गलतफहमी की शिकार हो रही है जैसी गलतफहमी बिहार चुनाव के दौरान भाजपा नेतृत्व को हो गई थी। बिहार चुनाव में ऊपरी तौर पर न उसका प्रचार तंत्र कमजोर नजर आ रहा था न ही चुनावी प्रबंधन ढीला दिखा, लेकिन नतीजा कुछ और आया। बिहार चुनाव में बीजेपी के सारे दांव उलटे पड़े। महागठबंधन ने बेहद चालाकी और सियासी सूझबूझ से आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर दिये बयान,असहिष्णुता,अखलाक हत्याकांडद्व बाहरी बनाम बिहारी जैसे मुद्दों को हवा देकर वोटरों को अपने पक्ष में कर लिया।चुनावी रण में किसी की भी नेता और दल की जीत-हार केवल उसकी अपनी ताकत नहीं बल्कि विरोधियों की क्षमता, रणनीति पर भी निर्भर होती है।

सपा की सबसे बड़ी चुनौती है अपने सियासी दुश्मन की पहचान करना। उसके रणनीतिकारों के सामने साफ होना चाहिए उसका दुश्मन नंबर वन कौन है? 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी सत्तारूढ़ बसपा के खिलाफ हुंकार भर रही थी।मायावती सरकार का शासनकाल ज्यादा खराब नहीं रहा था।मायावती सरकार के कुछ मंत्रियों पर जरूर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे,लेकिन माया का दामन साफ था।वह उन मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई भी कर रहीं थीं जो भ्रष्टाचार से घिरे हुए थे।माया राज में फैसले जात-पात से ऊपर उठकर लिये जा रहे थे,लेकिन यह बात बसपा सुप्रीमों मायावती और उनके नेता जनता को समझा नहीं पाये। उधर,तत्कालीन बसपा सरकार पर सटीक हमले के लिये समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह सारे हथकंडे अपना रहे थे,इसके बाद भी चुनाव में अपने आप को पिछड़ता देख ने मुलायम ने अपना तरूप का इक्का ‘अखिलेश यादव’ चल दिया।अखिलेश को आगे करने की वजह थी,मायावती तमाम चुनावी सभाओं में एक ही बात दोहरा रही थीं कि प्रदेश में अगर समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी तो फिर से गुंडा राज आ जायेगा।इसी भ्रम को तोड़ने के लिये सपा प्रमुख को अखिलेश को आगे करना पड़ा था।अखिलेश ने चिल्ला-चिल्ला कर कहा की समाजवादी सरकार बनी तो गंुडों की जगह जेल में होगी। हुआ क्या यह अलग बात है,लेकिन उस समय तो जनता ने युवा अखिलेश की बातों पर विश्वास किया ही था।अखिलेश की बातों से लोगों को लगा कि सपा ही बसपा के भ्रष्टाचार से प्रदेश को मुक्ति दिला सकती है। 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 2012 में सपा के मात्र  पांच फीसदी अधिक वोट मिले थे, फिर भी उसने(सपा) यूपी के अपने  इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल कर ली। 2017 के चुनाव में जाने से पहले सपा को अपने दुश्मन नंबर वन की न केवल शिनाख्त कर लेनी होनी, बल्कि उसके खिलाफ हल्ला बोल का एलान भी कर देना होगा। सत्ता में आने के बाद से सपा विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल बसपा के बजाय भाजपा को ही दुश्मन नंबर वन की अहमियत देती दिखी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि 2014 के चुनाव में उसका मुकाबला भाजपा से होना था। लेकिन बिहार चुनाव से ऐन पहले पार्टी भाजपा को लेकर नरम दिखने लगी है।उसे लगने लगा है कि कहीं बसपा फिर से छुपा रूस्तम न साबित हो जाये।वैसे भी पिछले दो दशकों से लड़ाई बसपा-सपा के बीच ही होती रही है।बीते दिनों राज्यसभा में गरीब सवर्णाें को आरक्षण देने की मांग करके बसपा सुप्रीमों ने अपने सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को धार देना शुरू कर दिया है।मायावती के बयानों से ऐसा लगता है कि अबकी बसपा एक बार फिर ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ के नारे के साथ ही मैदान में कूदेगी।माया की तरह ओवैसी भी सपा के लिये चुनौती बन सकते हैं जो 2017 के विधान सभा चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं।

अगर नजर इस बात पर दौड़ाई जाये कि उत्तर प्रदेशम में 2017 में क्या होगा? क्या यूपी में महागठबंधन बन सकता है ?तो पता चलता है कि बसपा ऐसा दल है जिसने सबका साथ लिया-दिया,जबकि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त कांगे्रस-भाजपा ने कभी भी एक-दूसरे से हाथ नहीं मिलाया।वहीं चैधरी चरण सिंह के पुत्र और राष्ट्रीय लोकदल के नेता चैधरी अजित सिंह ने हमेशा सत्ता की राजनीति की।2012 में पीस पार्टी,उलेमा काउंसिल,जनतांत्रिक मोर्चा,कौमी एकता दल,शिवसेना,हिन्दू सेना जैसे छोटे-छोटे दल भी ताल ठोंकते मिले थे,लेकिन 2017 इनके लिये सुखद नही लग रहा है।वोटर समझ गये हैं कि इन दलों की स्थिति वोट नुचवा से अधिक नहीं है।अपना दल जरूर भाजपा के साथ लोकसभा की तरह विधान सभा चुनाव में भी खड़ा नजर आ सकता है।

बहरहाल,समाजवादी पार्टी जीत के सपने देख रही है। यह अच्छी बात है। वह ऐसा इस लिये सोच भी सकती है क्योंकि उसने जनता से किये कई वायदे पूरे किये है, लेकिन उसके समाने जो चुनौती हैं उसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है।राजभवन से लगातार टकराव,प्रोन्नति में आरक्षण विवाद,आजम खान के विवादित बोल,प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था,समाजवादी नेताओं की गुंडागर्दी,केन्द्र-राज्य के बीच संबंध में खटास, किसानों की दुर्दशा,गन्ना किसानों की समस्या,बुंदेलखंड की तरफ से सरकार की अनदेखी,ईमानदार सरकारी अधिकारियों को सत्ता पक्ष द्वारा प्रताडि़त करना,नोयडा अथार्रिटी की मुख्य अभियंता यादव सिंह का प्रकरण,मंत्री प्रजापति का भ्रष्टाचार,प्रदेश में बढ़ता साम्प्रदायिक तनाव,पंचायत चुनाव की हिंसा आदि कई ऐसे मसले हैं जिसको लेकर वोटरों में अखिलेश सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ती ही जा रही है। इस ओर भी सपा नेताओं को ध्यान देना होगा।समाजवादी पार्टी को इस लिये भी चैकन्ना रहना होगा क्योंकि पंचायत चुनावों में राज्य के कुछ हिस्सों में उसे भारी झटका लगा था। पार्टी के मंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं के कई रिश्तेदार चुनाव हार गये थे। मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी ने इन चुनावों में प्रभावशाली प्रदर्शन कर सबको चैंका दिया। जिला पंचायत चुनावों में पार्टी समर्थित अधिकांश उम्मीदवार जीत गये। पंचायत चुनाव किसी पार्टी के चुनाव निशान पर नहीं लड़े जाते लेकिन पार्टियां उम्मीदवारों को अपना समर्थन देती रहती हैं।

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