शैलेन्द्र चौहान २१ दिसंबर २०१५ को इकसठ वर्ष पार कर चुके हैं। यह बेहद सामान्य घटना हो सकती है उनके लिए जो शैलेन्द्र जी से आत्मीय नहीं हैं। बहुत से लोग उन्हें बहुत नापसंद भी करते हैं उनके लिए भी यह कोई महत्त्व की बात नहीं। पर जो लोग एक बार शैलेन्द्र चौहान के संपर्क में बिना छल छद्म के प्रविष्ट हो गए वे इस अतिसंवेदनशील व्यक्ति के अनन्य रहे आये। यूँ शैलेन्द्र जी पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन मन और आत्मा से एक संवेदनशील साहित्यकार। व्यक्ति के तौर पर भी वह अनूठे हैं सचाई की बारीक़ परतों में प्रवेश कर वस्तुगत यथार्थ को समझने के लिए सतत प्रयत्नशील। सच को सच कहना उनकी आदत है स्वभाव है। वह मुंह देखकर बातें नहीं करते बल्कि मूल्यों और आदर्शों से सम्पृक्त होकर बतियाते है। फिर चाहे भला लगे या बुरा।
इसके पीछे न कोई दुर्भावना होती है न काइंयाँपन जो अन्य अनेकों व्यक्तियों में अक्सर मिलता है। जो अगर आपकी प्रशंसा करेंगे तो उसका ध्वन्यार्थ अलग होगा असल अर्थ अलग। लेकिन शैलेन्द्र जी ऐसे तीर नहीं साधते। उनकी रचनात्मकता भी कुछ ऐसी ही है। समीक्षक सूरज पालीवाल उनकी कविता पुस्तक 'ईश्वर की चौखट पर' की समीक्षा में कहते हैं- "ढेरों कविताओं के इस दौर में , ढेरों कवियों की इस जमात में किसी भी कवि के लिये पहचान बना पाना कठिन है लेकिन शैलेंद्र चौहान अपनी पहचान बना पाये हैं क्योंकि उनकी कविता प्रचलित मानदंडों के विरोध में खड़ी हैं । मैं मानकर चलता हूं कि किसी की नकल करके कोई बड़ा नहीं बनता बड़ा बनता है अपने अनुभवों और जीवन संघर्षों को अपनी तरह से रूपायित करके । शैलेंद्र चौहान ने अपनी कविताओं में यही किया है फिर उनकी कविता क्यों नहीं बड़ी बनेगी।
'ईश्वर की चौखट पर ' मैं यही कहना चाहता हूं लेकिन प्रार्थना के स्वर में नहीं।" अब यह अलग बात है कि लोग जानबूझ कर इस तथ्य को न स्वीकार करें। वैसे भी शैलेन्द्र जी इन बातों की चिंता ही कब करते हैं। वह मित्रों के आत्मीय सुझाव सहजता से स्वीकारते हैं। अपनी आलोचना को बरदास्त करने का उनमें गजब का धैर्य है। वह आलोचना का कतई बुरा नहीं मानते बल्कि मुस्कराते रहते हैं। यह बात विरल है। कवि-कथाकार अभिज्ञात कहते हैं - "शैलेन्द्र का होना मनुष्य समाज व दुनिया की बेहतरी के बारे में सोचते व्यक्ति का होना है। मुझे कई बार यह लगता है कि बेहतर सोचने वाले दुनिया के लिए उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने की बेहतरी के बारे में सोचने वाले। बेहतर सोचने में किसी व्यक्ति का अपना बहुत बड़ा योगदान मुझे नहीं लगता क्योंकि वह प्रारब्ध स्थिति है लेकिन बेहतरी के बारे में सोचना अर्जित है।
बहुत से प्रलोभन आड़े आते हैं बेहतरी के बारे में सोचते हुए जिनसे किनारा करना पड़ता है। शैलेन्द्र जी की कुछेक कविता संग्रहों की समीक्षा मैंने की है और यह महसूस किया है कि उनकी कविताओं में एक खास तरह की सादगी है जो उनके अपने व्यक्तित्त्व का भी हिस्सा है और दूसरी चीज़ यह कि उनके कथ्य में खरापन अधिक है जो उनकी कलात्मकता को भी कई बार कमतर करता चलता है। सच कहूं तो मुझे यह अपनी ओर अधिक आकृष्ट करता है। जीवन मूल्य और कला मूल्य की मुठभेड़ में जीवन मूल्य की जीत जाना मुझे अधिक आश्वस्तकारी लगता है।" शैलेन्द्र जी के तीन कविता संग्रह आये हैं। पहला संग्रह सन १९८३ में 'नौ रुपये बीस पैसे के लिए' नाम से आया था। इस संग्रह की कविताएं यद्दपि उनकी शुरूआती दौर की कविताएं हैं लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि इनमें एक सहज परिपक्वता और प्रौढ़ता मौजूद है जो कवि शैलेन्द्र को अन्य कवियों से अलगाती है। तभी आलोचक मूलचंद गौतम कहते हैं - "शैलेंद्र चौहान को कविता विरासत के बजाय आत्मान्वेषण और आत्मभिव्यक्ति के संघर्ष के दौरान मिली है। निरन्तर सजग होते आत्मबोध ने उनकी रचनाशीलता को प्रखरता और सोद्देश्यता से संपन्न किया है। इसी कारण कविता उनके लिए संपूर्ण सामाजिकता और दायित्व की तलाश है।
विचार, विवेक और बोध उनकी कविता के अतिरिक्त गुण हैं। जब कविता और कला आधुनिकता की होड़ में निरन्तर अमूर्त होती जा रही हो, ऐसे में शैलेंद्र चौहान समाज के हाशिए पर पड़े लोगों के दु:ख तकलीफों को, उनके चेहरों पर पढ़ने की कोशिश करते हैं।" वहीँ 'कृत्या' पत्रिका की संपादक रति सक्सेना कहती हैं - "कविता को समकालीन समय से जोड़ना जितना दूभर होता जा रहा है, उसके लिए नए आयाम खोलना उससे भी ज्यादा। शैलेन्द्र की कविता को मुद्दे तलाशने नहीं पड़ते, वे स्वयं ही उसके पास खुद- ब- खुद चले आते हैं, बिल्कुल आसपास की जिन्दगी से। शैलेन्द्र जी की कविताएँ बेहद सहज जीवन की सच को बयान करती हुई सरस हैं। यह विशेषता आज की कविता से निकलती जा रही है, इस सहजता को पकड़ कर रखना आज के साहित्य की आवश्यकता बनती जा रही है। हालाँकि उनकी प्रतिबद्ध बौद्धिकता के बारे में दो राय नहीं रखी जा सकती, फिर भी कृत्या के लिए मैंने उन्हीं कविताओं को चुना है जिनमें चुटीला व्यंग्य और सहज शब्द समाकार हो गए हैं।" शैलेन्द्र चौहान बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं।
उन्होंने महज कविताएं ही नहीं लिखी बल्कि कहानियां, व्यंग्य और सार्थक साहित्यिक टिप्पणियां भी लिखीं। हाल ही में उनका बेहद रुचिकर कथा रिपोर्ताज आया है 'पाँव जमीन पर' जिसके बारे में सुप्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं- 'शैलेंद्र के लिए लोकजीवन किसी सेमिनार या किताब के जरिये सीखा गया शब्द नहीं है। लोकधर्मिता अपने बचपन के साथ उसकी शिराओं में बहने वाली एक अदृश्य नदी का नाम है। ऐसा बचपन जिसमें चॉकलेट और मल्टीप्लेक्स नहीं हैं, वीडियोगेम्स, मोबाइल्स और साइबर कैफे नहीं हैं, टाई, जूते, रंगीन बैग, टिफिन और स्कूल बसेज़ नहीं हैं। वहाँ एक प्रायमरी पाठशाला है, कच्ची-पक्की पहली कक्षा है, जिसमें एक चकित-सा बेहद संवेदनशील बच्चा है, जो अपनी काठ की पट्टी को घोंटना और चमकाना सीख गया है, जो बर्रू से वर्णमाला लिखना सीख रहा है।
घर के ओसार या स्कूल के आसपास किसी पेड़ के नीचे सबसे अलग बैठा हुआ ब्लेड से कलम की नोक छील रहा है। जितनी अच्छी कलम की नोक होगी, अक्षर और शब्द उतने ही सुंदर बनेंगे।' आलोचना के क्षेत्र में तो उनकी प्रतिभा का लोहा सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर जी भी मानते हैं। एक और महत्वपूर्ण पक्ष है शैलेन्द्र चौहान की रचनात्मकता का वह है उनका संपादन कौशल। 'धरती' नामक लघुपत्रिका एक गंभीर प्रयास है वैचारिक साहित्य की प्रस्तुति का जो लगातार जारी है। अभी पिछले दिनों मीडिया पर एक महत्त्वपूर्ण गंभीर अंक निकला है 'धरती' का। पत्रकारिता से तो शैलेन्द्र जी का अभिन्न रिश्ता है। जब भी अवसर मिलता है वह समाचार पत्रों के लिए लिखते है बल्कि इन दिनों तो नियमित ही लिख रहे हैं। इस सबके बावजूद वह न अपने कामों की चर्चा करते है, न ही किसी अन्य से इसकी अपेक्षा करते हैं। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी शैलेन्द्र चौहान को साठ वर्ष का होने पर अनेकशः शुभकामनाएं। यह अत्यंत प्रसन्नतादायक है। हम उनके शतायु होने की कामना करते हैं ताकि हिंदी साहित्य संसार को वह और समृद्ध कर सकें।
चंद्रमौलि चंद्रकांत
मानविकी संकाय
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान,
वारंगल-506004 (आ प्र)
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