Dec 27, 2015

मनुस्मृति दहन दिवस : ब्राह्मणवादी मीडिया में इस पर बहुत तगड़ी प्रतिक्रिया हुयी...

-एस आर दारापुरी-

25 दिसम्बर का दिन  दलितों के लिए " मनुस्मृति दहन दिवस" के रूप में  अति महतवपूर्ण दिन  है।  इस दिन ही  सन 1927 को  " महाड़ तालाब" के महा संघर्ष के अवसर पर  डॉ. बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने खुले तौर पर मनुस्मृति जलाई थी। यह ब्राह्मणवाद के विरुद्ध दलितों के संघर्ष की  अति महतवपूर्ण  घटना है। अतः इसे गर्व से याद किया जाना चाहिए।


डॉ. आंबेडकर के मनुस्मृति जलाने  के कार्यक्रम को विफल करने के लिए सवर्णों ने यह तै किया था कि उन्हें इस के लिए कोई भी जगाह न मिले परन्तु एक फत्ते खां नाम के मुसलमान ने उन्हें  इस कार्य हेतु अपनी निजी ज़मीन उपलब्ध करायी थी। उन्होंने यह भी रोक लगा दी थी कि आन्दोलनकारियों को स्थानीय स्तर पर खाने पीने तथा ज़रूरत की अन्य कोई भी चीज़ न मिल सके। अतः सभी वस्तुएं बाहर से ही लानी पड़ी थीं। आन्दोलन में भाग लेने वाले स्वयं सेवकों को इस अवसर पर पांच बातों  की शपथ लेनी थी:-

1. मैं जन्म आधारित चातुर्वर्ण में विशवास नहीं रखता  हूँ।
2. मैं जाति भेद में विशवास नहीं रखता हूँ।
3. मेरा विश्वास है कि जातिभेद हिन्दू धर्म  पर कलंक है और मैं इसे ख़तम करने की कोशिश  करूँगा।
4. यह मान कर कि कोई भी उंचा - नीचा  नहीं है, मैं  कम से कम हिन्दुओं में आपस में खान पान में कोई प्रतिबन्ध नहीं मानूंगा।
5. मेरा विश्वास है कि दलितों का मंदिर, तालाब और दूसरी सुविधाओं में सामान अधिकार है।

डॉ. आंबेडकर दासगाओं बंदरगाह से पद्मावती बोट द्वारा आये थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं बस वाले उन्हें ले जाने से इन्कार न कर दें।
कुछ लोगों ने बाद में कहा कि डॉ आंबेडकर ने मनुस्मृति  का निर्णय बिलकुल अंतिम समय में लिया क्योंकि कोर्ट के आदेश और कलेक्टर के मनाने पर महाड़  तालाब से पानी पीने का प्रोग्राम रद्द करना पड़ा था। यह बात सही नहीं है क्योंकि मीटिंग के  पंडाल के सामने ही मनुस्मृति को जलाने के लिए पहले से ही वेदी बनायीं गयी थी। दो दिन से 6 आदमी इसे तैयार करने में लगे हुए थे। एक गड्डा जो 6 इंच गहरा और डेढ़ फुट वर्गाकार था  खोद गया था जिस में चन्दन की लकड़ी रखी गई थी। इस के चार किनारों पर  चार पोल गाड़े गए थे जिन पर तीन बैनर टाँगे गए थे जिन पर लिखा था:
1. मनुस्मृति  दहन स्थल
2. छुआ -छुत का नाश हो और
3. ब्राह्मणवाद को दफ़न करो।

25 दिसम्बर, 1927 को 9 बजे इस पर मनुस्मृति को एक एक पन्ना फाड़ कर डॉ आंबेडकर, सहस्त्रबुद्धे और अन्य 6 दलित साधुओं द्वारा जलाया गया।  पंडाल में केवल गाँधी जी की ही एकल फोटो थी। इस से ऐसा प्रतीत होता कि डॉ आंबेडकर और दलित लीडरोँ का तब तक गाँधी जी से मोहभंग नहीं हुआ था।  मीटिंग में बाबा  साहेब का ऐतहासिक भाषण हुआ था। उस भाषण के मुख्य बिंदु निम्नलिखित लिखित थे:-

हमें यह समझाना चाहिए कि हमें इस तालाब से पानी पीने  से क्यों रोक गया है। उन्होंने चतुर्वर्ण की व्याख्या की और घोषणा की कि हमारा संघर्ष चातुर्वर्ण को नष्ट करने का है और यही हमारा समानता के लिए संघर्ष का पहला कदम है। उन्होंने इस मीटिंग की तुलना 24 जनवरी, 1789 से की जब लुइस 16वें ने फ्रांस के जन प्रतिनिधियों की मीटिंग बुलाई थी। इस मीटिंग में राजा  और रानी मारे गए थे, उच्च वर्ग के लोगों को परेशान  किया गया था और कुछ मारे भी गए थे। बाकी  भाग गए और अमिर लोगों की सम्पति ज़ब्त कर ली गयी थी तथा इस से 15 वर्ष का लम्बा गृह युद्ध शुरू हो गया था। लोगों ने इस क्रांति के महत्त्व को नहीं समझा है। उन्होंने फ्रांस की क्रांति के बारे में विस्तार से बताया।  यह क्रांति केवल फ्रांस के लोगों  की खुशहाली का प्रारंभ ही नहीं था,  इस से पूरे यूरोप और विशव में क्रांति आ गयी थी।

तत्पश्चात उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य न केवल छुआ -छुत को समाप्त करना है बल्कि इस की जड़ में  चातुर्वर्ण को भी समाप्त करना है। उन्होंने आगे कहा कि किस तरह पैट्रीशियनज़  ने धर्म के नाम पार प्लेबिअन्स को बेवकूफ बनाया था। उन्होंने ललकार कर कहा था कि  छुअछुत का मुख्य कारण अंतरजातीय विवाहों पर प्रतिबन्ध है जिसे हमें तोडना है। उन्होंने उच्च वर्णों से इस "सामाजिक क्रांति" को शांतिपूर्ण ढंग से होने देने, शास्त्रों  को नकारने और न्याय के सिद्धांत को स्वीकार करने की अपील की। उन्होंने उन्हें अपनी तरफ से पूरी तरह से शांत रहने का आश्वासन दिया। सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गए और समानता की घोषणा की गयी। इस के बाद मनुस्मृति जलाई गयी जैसा  कि ऊपर अंकित किया गया है।

ब्राह्मणवादी मीडिया में इस पर बहुत तगड़ी प्रतिक्रिया हुयी। एक अखबार ने उन्हें "भीम असुर" कहा। डॉ आंबेडकर ने कई लेखों में मनुस्मृति के जलाने को जायज़ ठहराया। उन्होंने उन लोगों का उपहास किया और कहा कि उन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा नहीं है और कहा कि हम इसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने उन लोगों का ध्यान दलितों पर होने वाले अत्याचार की ओर खींचते  हुए कहा कि वे लोग मनुस्मृति पर चल रहे हैं जो  यह कहते हैं कि यह तो चलन में नहीं है, इसे क्यों महत्व देते हो। उन्होंने आगे पूछा कि अगर यह पुराणी हो गयी है तो फिर आप को किसी द्वारा  इसे जलाने  पर आपात्ति क्यों होती है? जो लोग यह कह रहे थे कि मनुस्मृति जलाने  से दलितों को क्या मिलेगा इस पर उन्होंने उल्टा पूछा कि  गान्धी  जी को विदेशी वस्त्र जलाने से क्या मिला? "ज्ञान प्रकाश" जिसने खान  और मालिनी के विवाह के बारे में छापा  था को जला कर क्या मिला? न्युयार्क में मिस मेयो की " मदर इंडिया " पुस्तक जला कर क्या मिला? राजनैतिक सुधारों को लागू करने के बनाये गए "साइमन कमीशन" का बाईकाट करने से क्या मिला? यह सब विरोध दर्ज कराने के तरीके थे ऐसा ही हमारा भी मनुस्मृति के विरुद्ध था।

उन्होंने आगे घोषणा की अगर दुरभाग्य से मनुस्मृति जलाने  से ब्राह्मणवाद ख़त्म नहीं होता तो हमें या तो ब्राह्मणवाद से ग्रस्त लोगों को जलाना पड़ेगा या फिर हिन्दू धर्म छोड़ना पड़ेगा। आखिरकार बाबा साहेब को  हिन्दू को त्याग कर बौद्ध धम्म वाला रास्ता अपनाना पड़ा। मनुस्मृति का चलन आज भी उसी तरह से है। अतः दलितों को मनुस्मृति दहन दिवस मना कर तब तक जलाना पड़ेगा जब तक चातुर्वर्ण ख़त्म नहीं हो जाता.


-एस आर दारापुरी 
आई.पी.एस. (से.नि.)
लखनऊ

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