Dec 7, 2015
धन लोलुप मालिकान और उनके चमचे संपादकों को मीडिया की विश्वसनीयता की चिंता नहीं
पुरुषोत्तम असनोड़ा
राष्ट्रीय प्रेस दिवस आया और चला गया। इस मौके पर प्रेस की बदहाली पर आंसू बहाने के अलावा शायद ही कुछ किया गया हो। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का उपयोग निहित स्वार्थी पूंजी और प्रभाव के लिए जिस तरह कर रहे हैं उससे प्रेस की आजादी, उसकी विश्वसनीयता पर बड़े सवाल खड़े हुए हैं और भविष्य में वह अपने अन्तरविरोधों और कुकर्मों के चलते हाशिये पर खडी नजर आये तो बहुत आश्चर्य नहीं होगा।
प्रिंट मीडिया और इलक्ट्रानिक मीडिया के बाद अब सोशल मीडिया ने दस्तक दी है। भारतीय प्रेस छोट, मझौले और राष्ट्रीय अखबारों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं। प्रायः दिल्ली से निकलने वाले समाचार पत्र राष्ट्रीय कहे जाते हैं और विभिन्न प्रदेशों और क्षेत्रीय पत्रों को मझौले श्रेणी व स्थानीय स्तर के छोटे पत्र। कुछ समय पहले तक के सभी मझौले पत्र अब दिल्ली अथवा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से निकलने लगे हैं। मझौले पत्रों के रूप में कमाई सदशयता ने उन्हें अपना साम्राज्य बनाने और राष्ट्रीय पत्रों की जगह लेने की गुंजाईश दे दी और स्थानीय मीडिया को निगलने वाले अजगर राष्ट्रीय सोच और संस्कृति तो नहीं पैदा कर पाये, धनपशु बनने की होड़ में जरूर शामिल हो गये।
खबरों का एक राष्ट्रीय स्वरूप रहा है। आजादी की लडाई से लेकर क्षेत्रीय और स्थानीय आन्दोलनों को प्रचारित-प्रसारित करने में मीडिया का योगदान बहुत अधिक रहा है। स्थानीय पत्र तो जनता के मित्र के रुप में रहे हैं जो अपने पाठक के सुखदुखों के न केवल साक्षी होते थे बल्कि सहायक भी। मजीठिया आयोग की शिफारिसों पर देश के सर्वोंच्च न्यायालय की आंखों में धूल झोंकने में लगे मीडिया के प्रवन्धक और मालिकों का सोच कितना है जाहिर हो गया है। जिलावार संस्करण से लोगों को खबरों से वंचित करने का अपराध तो लम्बे समय से चल रहा है। अखबारों ने समाचार पत्र के सबसे महत्वपूर्ण भाग संपादकीय को दूसरे दर्जे का बना दिया हैं। संपादक भी अपने संपादकीय सहयोगियों के हितों और उनकी योग्यता के बजाय चम्चागिरी और मालिक की स्वयं पोलिस करने में विश्वास करने लगे हैं।
पत्रकारिता का सबसे बड़ा संचय उसकी विश्वसनीयता है जो आज दाव पर है। हर चुनाव में चुनावी सर्वेक्षण फेल होने के बावजूद मीडिया अपनी भद पीटता जा रहा है। यह पैसे का खेल है। अपने आका को अंतिम समय तक खुश रखने का खेल। तब पाला बदल लो। आज मीडिया की विश्वसनीयता दांव पर है लेकिन धन लोलुप मालिकान और उनके चमचे संपादकों को उसकी चिन्ता नहीं है। हमारे समाचार पत्र आजादी की लडाई में जिस दीर्घगामी सोच और स्वयंसेवी भाव से उस लड़ाई को समर्पित सहयोग कर रहे थे वह मीडिया के लिए ज्योति स्तंभ है।
मीडिया का दूसरा बडा संकट पत्रकारों का अपने पेशे के प्रति समर्पण का अभाव है। यह सच भी है कि भूखे पेट भजन कब तक हों? शोषण दर शोषण की चक्की में पिस रहा पत्रकार अध्ययन से अरुचि पाल रहा है जबकि अध्ययन ही किसी की भी मानसिक खुराक है। अध्ययन के अभाव में बहुत सारी चीजों का छूटना लाजिमी है। ये तय करना पत्रकार विरादरी का काम है िकवे अपने पेशे को कैसे विश्वसनीय बनाये और ऐसे अजगरों से कैसे छूछें जो उनके नही पत्रकार के दुश्मन बन बैठे हैं।
लेखक पुरुषोत्तम असनोड़ा उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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