द्वितीय सत्र में युवा साथियों ने गुलाब का फूल देकर मंचस्थ अतिथियों का सम्मान किया. मंच संचालन करते हुए घाटशिला के युवा कथाकार शेखर मल्ल्लिक ने भूमिका रखते हुए कहा कि, आज इस वक्त भीष्म जी को याद करने के मायने खास हैं. जिस दौर में हम आज हैं, वह एक ऐसा समय है, जिसमें भीष्म साहनी को याद किया जाना जरूरी है. प्रगतिशील और समतावादी रचनाकार भीष्म जी प्रेमचंद की परम्परा को आगे ले जाने वाले, आम आदमी को रचना में उसकी पुरी ताकत और कमजोरियों के साथ खड़ा करने वाले लेखक हैं. उनकी रचनाएँ साम्प्रदायिकता का सिर्फ़ निषेध नहीं करतीं, बल्कि उनके कारणों की तह तक जाती हैं और हमें उस नब्ज को पकड़ने के लिये उकसाती है. एक तरफ जहाँ गंगो का जाया, बसंती जैसी कहानियाँ और उपन्यास हैं, जो हमें श्रमिक निम्न मध्यवर्ग से वावस्ता कराती हैं, उनके शोषण और संघर्ष का यथार्थ दिखाती हैं, तो दूसरी तरफ अमृतसर आ गया जैसी कहानी , तमस जैसा उपन्यास और आलमगीर, मुआवजे जैसे नाटक लिखकर उन्होंने साम्प्रदायिकता की सच्चाईयों को भी बेनकाब किया है.
भीष्म जी एक आम आदमी थे... सादगी से भरपूर. उनकी लेखनी और जीवन में कोई फ़र्क नहीं रहा. संघर्षशील जनों के साथ वे सभी मोर्चों, जैसे सफ़दर हाश्मी की हत्या के बाद सडक पर उतरना हो, पर आगे की पंक्ति में रहे. आज हम इस देश में साम्प्रदायिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा देख रहे हैं. गोमांस की अफ़वाह पर व्यक्ति हत्या हो रही है. और वो भी एक वायु सैनिक के पिता की. और खुद को चाय विक्रेता कह कर आम आदमी से प्रधानमंत्री बना व्यक्ति इस पर कुछ नहीं कहता. जबकि हर बात पर ट्विट होता है. दाभोलकर, पानसरे और कल्बुर्गी की हत्या होती है. हम देख रहे हैं कि तर्क के लिये, सच के लिये कोई स्पेस नहीं बचा है... वे लोग जो सत्ता में हैं, सच और तर्क को गोलियों से बंद कर देना चाहते हैं. भीष्म साहनी को इस समय याद करने का यह समय सचमुच महत्वपूर्ण समय है...
जमशेदपुर से आये कथाकार कमल ने भीष्म साहनी के उपन्यास "तमस" पर अपना आलेख “एक तमस और असंख्य अँधेरे” पढ़ा. उन्होंने कहा कि आज हम भीष्म साहनी या "तमस’ को इसलिए नहीं याद कर रहे हैं कि हम उत्सव के मूड में हैं, बल्कि इसलिए कि आज भी भीष्म साहनी और ये किताब हमें जीवन की शक्ति का दर्शन कराती प्रतीत हो रही है. "तमस’ में साम्प्रदायिकता और विभाजन केंद्रित कथावस्तु पर विस्तृत विश्लेषण और उपन्यास की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उन्होंने बताया कि लोगों को, निचले तबके के लोगों को बांटने की अंग्रेजों की नीतियों ने किस तरह काम किया. और साम्प्रदायिक दंगों की वजहें असल में कहाँ होती हैं. स्थितियाँ वहीं हैं. भीष्म साहनी बताते हैं कि चाहे किसी भी काल की बात हो, दंगे पुरी तरह शासकों द्वारा प्रायोजित होते हैं. वे स्वत: स्फूर्त कभी नहीं होते. भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ को पढते हुए बार-बार मन कसमसाता है कि हम साम्प्रदायिकता का समूल नाश कर अपनी सभ्यता और संस्कृति को यहाँ से और आगे ले जाएँगे अथवा साम्प्रदायिकता के औजार बनकर वापस उसी अंधकार में लौट जाएँगे जहाँ से निकलने में हमें सदियाँ लगीं.
घाटशिला महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रोफ. नरेश कुमार ने कहा कि "तमस" उनका प्रिय उपन्यास है. भीष्म साहनी अपनी रचनाओं में कोई भी निर्णय देते हुए नहीं दिखते. वे पाठकों के लिये खुला छोड़ देते हैं. भीष्म जी की रचनाओं में, पात्रों में वस्तुपरकता है. उन्होंने कहा कि हिंदी में पंजाबी आदि भाषाओँ की तरह विभाजन (भोगे हुए यथार्थ) पर अधिक लेखन नहीं है. करीम सिटी कॉलेज, जमशेदपुर के उर्दू विभाग प्रमुख, शायर और आलोचक अहमद बद्र साहब ने भीष्म जी के नाटकों में से "कबीरा खड़ा बाज़ार’ में नाटक पर अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि रचना भी विज्ञान और सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान आदि के सिद्धांतों – नियमों के अनुसार हो तो ही पूर्ण रचना हो सकती है, स्वीकार्य होती है. यानि तार्किकता जरूरी है. ‘कबीरा खड़ा बाज़ार’ में भीष्म जी ने बहुत पुराना पात्र उठाया. लेकिन ना उसमें कहीं इतिहास से टकराव होगा, ना कहीं सोशियोलोजी से टकराव होगा, ना कहीं अर्थशास्त्र के जो नियम हैं, उनसे टकराव होगा. कुछ भी नहीं टकराएगा और इसी वजह से शायद वह एक अच्छी कृति है, और मुझे लगता है कि जब ऐसा होता है, तभी रचना में स्ववाभिकता इस बात से होती है कि वो इनमें से किसी चीज से टकरा नहीं रही है. अगर वो इतिहास, भूगोल या विज्ञानं से टकरा रही है तो कहीं ना कहीं उसमें दिक्कत होगी. भीष्म जी बड़े स्वाभाविक ढंग से अपने यहाँ इन चीजों को पिरो लेते हैं.
‘कबीरा खड़ा बाज़ार’ में जो एक पात्र है बशीरा, भिश्ती. जहाँ सब लोग इकट्ठा होने वाले हैं, वहीं वह पानी का छिडकाव कर रहा होता है, ताकि धूल बैठ जाय. भिश्ती अपनी कहानी सुनाता है. भीष्म जी बड़े मार्के की बात कह जाते हैं, उस भिश्ती की कथा के बहाने. उसके पुरखों में पाँच भाईयों में दो मारे जाते हैं, दो कहीं चले जाते हैं, या मारे जाते हैं.... सौ साल का इतिहास भीष्म जी ने उठकर रख दिया है, जहाँ महामारी है, युद्ध के कारण मौत हैं, भुखमरी है... आम जनता का इतिहास यही है. जो हमले में दर-बदर होते रहे. बेगार में पकड़ कर जाते रहे, इधर फंसे रहे, उधर मरते रहे. कबीर के समकालीन सिकंदर लोदी वंश के भी पाँच भाइयों का क्या होगा, उनमें से दो कहाँ जाएँगे, और दो कहाँ जाएँगे और एक का क्या होगा... तो ये समझा जा सकता है. इसलिए कि निरंतरता है. अब सच्ची बात ये है कि भले ही ये मुग़ल वंश के शासन से पहले कि घटना है, कबीर का होना. लेकिन सच्चाई आज भी वही है. आज भी जो पांच बेटे हैं, उसमें से भी दो बेटे कहाँ जाएँगे और दो बेटे कहाँ जाएँगे और एक का क्या होगा, ये कोई नहीं जानता है. इसलिए कि शासन के नियम वही हैं. तेवर वही है, रंग वही है. सत्ता हासिल करने का तरीका एक ही है. सत्ता चलने का तरीका एक ही है. चाहे वो राजशाही हो, चाहे आज का लोकतंत्र हो. इसमें कहीं कोई परिवर्तन नहीं आया है. इसीलिए कबर भी सार्थक हैं और भीष्म साहनी भी सार्थक हैं.
कोलकाता से आये कवि सुधीर साहू ने कहा कि ऐसी शक्तियां जो समाज में टकराव की स्थिति बनाये रखना चाहती हैं, उनसे भीष्म साहनी की सारी रचनाएँ टकराती हैं. ये टकराव बहुत जरूरी है.
भीष्म साहनी के “अमृतसर आ गया” जैसी कहानी के आधार पर उन्होंने अपनी बात कही. किस तरह दंगे फैलना का काम कुछ लोग करते हैं, और उसकी चपेट में वे साधारण लोग भी आ जाते हैं, जिनकी अपनी ऐसी कोई तय सोच नहीं है. उनकी मानसिकता कैसे बदल जाती है. वे कैसे साम्प्रदायिक मानसिकता की कब्जे में आकार व्यवहार करने लगते हैं. ये बात आज हमें बहुत ज्यादा देखने में आ रही है. आज तमाम माध्यम बिके हुए हैं. एक ही आदमी का गुणगान करने में लगे हुए हैं. सोशल मिडिया जो सबसे जयादा ताकतवर हैं, वहाँ भी ऐसा सोची समझी साज़िश के तहत हो रहा है. कुछ लोग हैं जो ये कर रहे हैं. ये जिस सोच के सत् हो रहा है, उसी सोच को पकड़ा था भीष्म साहनी ने. तो उसको, उस असहिष्णुता को हम कैसे रोक सकते हैं, ये भी हम भीष्म साहनी की रचनाओं को पढकर जान सकते हैं. कुछ लेखक कुछ माध्यमों से परहेज करते हैं, लेकिन भीष्म जी ने, जिन जिन माध्यम से पाठकों के बीच में अपने लिखे हुए को ले जा सकते हैं, वो ले गए. आज इस बात की बड़ी जरूरत है कि हम हर तरह के माध्यम का प्रयोग हमको साम्प्रदायिक विचारों को रोकने के लिये, और अपने अपने विचारों को फ़ैलाने के लिये करना चाहिए. और नए लेखक कैसे क्या लिखें, इसके लिये भीष्म साहनी की हर रचना एक पाठशाला, एक पाठ्यक्रम से कम नहीं है.
प्रलेसं के महासचिव डॉ. सुभाष गुप्ता ने भी अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि भीष्म साहनी जी का व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन एक व्यापक ऐतिहासिक महत्व रखता है. ऐतिहासिक इस अर्थ में कि उनका जन्म रावलपिंडी (पाकिस्तान) में हुआ था और मृत्यु भारत में हुई. गुलाम भारत से लेकर आज़ाद भारत तक उनके जीवन और रचनाकर्म का फैलाव दिखाई देता है. इस फैलाव के भीतर भारतीय समाज और इतिहास की अनेक घटनाएँ-दुर्घटनाएँ दर्ज़ की गई हैं. इसलिए भीष्म साहनी को याद करना ना केवल एक कथाकार को याद करना है, बल्कि भारतीय समाज और पूरे दौर को याद करने के समान है. यद्यपि वे कई कहानी के दौर के कथाकार थे, मगर वे उस धारा में शामिल ना होकर प्रगतिशील धारा के कहानीकार थे. उन्होंने प्रेमचंद कि परम्परा का वाहन तो किया, लेकिन प्रेमचंद की तरह ग्रामीण जीवन को संदर्भ नहीं बनाया. बल्कि नई कहानी आंदोलन के कथाकारों की तरह अपने कथा साहित्य में शहरी मध्यवर्ग को संदर्भित किया. भीष्म साहनी अपने दौर के अकेले ऐसे कथाकार हैं, जो नगरों में स्लम जीवन जीने वाले लोगों के सुख-दुःख, उनके सपनों, संघर्षों और उनके जीवन के भयावह यथार्थ को अपने कथा साहित्य में दर्ज़ करते हुए दिखाई देते हैं. प्रेमचंद के साहित्य में भारत का ग्रामीण जीवन जिस व्यापकता से दिखाई देता है, उसी व्यापकता के साथ भीष्म साहनी के साहित्य में शहरी जीवन दिखाई देता है. इसलिए इन दोनों के साहित्य में दर्ज़ गाँव और नगरी जीवन की व्यापकता को मिला दिया जाय, तो भारत की एक मुक्कमल तस्वीर बन जाती है. मैं मानता हूँ कि प्रेमचंद समाज के भीतर जो मनुष्य है, उसकी पड़ताल करते हैं, जबकि भीष्म साहनी मनुष्य के भीतर जो समाज है, उसकी पड़ताल करते हैं. प्रेमचंद हिंदी साहित्य के हार्डवेयर हैं, तो भीष्म साहनी हिंदी साहित्य के सॉफ्टवेयर !
भीष्म साहनी के समकालीन परिस्थितियों को समझे बिना उनकी रचनाशीलता को समझना मुश्किल है. भीष्म साहनी को भीष्म साहनी बनने में उनकी विचारधारा की कितनी भूमिका रही है. लेकिन उनकी विचारधारा किसी किताब से उधार ली गयी नहीं थी. या वह किसी लेखकीय फैशन के तहत अपनाई गयी विचारधारा नहीं थी. गौरतलब है कि भीष्म साहनी पहले आंदोलनकर्मी बने, पहले वे संगठन से जुड़े, पहले वे कार्यकर्ता बने, तब रचनाकर्मी बनते हैं. बहुत कम रचनाकारों के यहाँ ये प्रक्रिया दिखाई देती है. अपने समय के तमाम सामाजिक, राजनितिक और सांस्कृतिक आंदोलनों में जुड़ते हुए दिखाई देते हैं. इन आंदोलनों की भागीदारी ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचाया कि पुरी दुनिया के सामने यदि कोई वैचारिक विकल्प है, तो मार्क्सवाद दिखाई देता है. आंदोलनों की आग में तप कर उन्होंने वामपंथी विचारधारा को आत्मसात किया. और इन आंदोलनों की भागीदारी ने उनके भीतर एक वैचारिक मजबूती दी, और इसी मजबूत आधार पर उन्होंने अपने साहित्य को शब्दों का आकार दिया.
भीष्म साहनी पहले एक्टीविस्ट हैं, फिर रचनाकार हैं. जिस दौर में हम सभी लोग जी रहे हैं, जहाँ लगातार सत्ता शासन के द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले किए जा रहे हैं, देश के बहुलतावादी ढाँचे पर लगातार हमले हो रहे हैं, तर्कवादी और तर्कसंगत बात करने वालों पर जिस तरह से जानलेवा हमले किए जा रहे हैं, ऐसे समय में तमाम कलमजीवियों को सिर्फ़ कलम तक सिमित रहने की जरूरत नहीं है, बल्कि लेखन के साथ साथ उन्हें एक्टिविज़्म की भूमिका में भी उतरने की जरूरत दिखाई देती है.
भीष्म साहनी मानते थे कि नागरिक दायित्व, सामाजिक दायित्व और रचनात्मक दायित्व में कोई बुनियादी फ़र्क नहीं होता है. और इसी बुनियादी फ़र्क न करने के कारण वो (भीष्म साहनी) जितने उर्जाशील, उर्जावान रचनात्मक स्तर पर दिखाई देते हैं, उतने ही सक्रिय सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों के स्तर पर भी दिखाई देते हैं. भीष्म साहनी की पूरी रचनाशीलता का साठ प्रतिशत दो सवालों को बुलंद करता है, एक तो भारत का आम आदमी, चाहे वो ग्रामीण जीवन से विस्थापित होकर शहर में गया हो, आम आदमी के जीने का प्रश्न और जीवन विरोधी परिस्थितियाँ, इन दोनों के टकराहट में आम आदमी कैसे अपनी जिजीवषा के साथ जीता है, इस सवाल को पुरी प्रखरता, ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ भीष्म साहनी ने अपनी रचनाओं में उठाया है. और दूसरा महत्वपूर्ण सवाल जो उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है, वो है, साम्प्रदायिकता का सवाल. मैं ये मानता हूँ कि भीष्म साहनी जी की पुरी रचनाशीलता साम्प्रदायिक, प्रतिक्रियावादी शक्तियों के खिलाफ़ हस्तक्षेप है. और साझी संस्कृति को बचाए रखने की अपील भी है. और यही अपील आज की तारीख में हमें उन्हें बार बार पढ़ने, समझने और याद करने के लिये प्रेरित करती है. और शायद यदि हम नए सिरे से गोलबंद होकर सरकार का जो प्रतिक्रियावादी चेहरा है, उसके खिलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ अगर बुलंद कर सकें, तो शायद भीष्म साहनी को याद यही एक सच्ची और सार्थक प्रक्रिया होगी.
दिल्ली से आये म.प्र. प्रलेसं का महासचिव, प्रखर कवि और किसानी मामलों के गम्भीर अध्येता कॉम. विनीत तिवारी ने मुख्य वक्ता के तौर पर अपने विचार रखे. अपनी बात शुरू करते हुए उन्होंने कहा कि परिचर्चा के विषय "हमारे समय में भीष्म साहनी’ में एक छिपा हुआ शब्द है - 'और हम' यानि हमारे समय में भीष्म साहनी और हम ! हमारे समय में भीष्म साहनी की प्रासंगिकता को, उनके इतिहास को समझने के बाद हम क्या कर रहे हैं, ये सवाल हम सबके लिये इस विषय के अंदर शामिल है. उनके आग्रह पर आज पेरिस में आतंकी हमले में मारे गए लोगों के सम्मान में एक मिनट का मौन रखा गया.
कॉमरेड विनीत तिवारी ने विस्तार से भीष्म साहनी के जीवन, उनकी रचना दृष्टि, समकालीन स्थिति पर व्यापक प्रकाश डाला. भीष्म साहनी की आत्मकथा के उनके बचपन के किस्सों का उद्धरण पढते हुए उन्होंने भीष्म जी को एक व्यक्ति के रूप में समझने की बात कही. उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी और इप्टा के इतिहास के हवाले से बताया कि बड़े भाई बलराज साहनी के संघर्ष के सामने और समकालीन दौर के बड़े व्यक्तित्वों जैसे कैफ़ी आज़मी, फैज़, सज्जाद ज़हीर, तुर्की में नाजिम हिकमत, सात्र के बीच भीष्म जी खुद को अत्यंत साधारण पाते थे, इसलिए उनमें कभी गर्व नहीं हुआ कि वे कोई बड़ा काम कर रहे हैं. "तमस’ एक उनका बड़ा काम है, मगर उसे लेकर भी उनके भीतर महानता का भाव नहीं आया. वे हमेशा विनम्र बने रहे. भीष्म साहनी ने जीवन के अंदर कुछ चीजों का चयन कर लिया, जैसे कि वे विलेन का काम नहीं करेंगे. जैसे तमस, मोहन जोशी हाज़िर हो, मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर में काम किया. लेकिन आप देखेंगे कि उनका जो काम था वो इतना ग्रेसफुल काम था, इतना ग्रेसफुल रोल था. जैसे कि आमतौर पर कहा जाता है कि जो एक्टर हर तरह का रोल करे वो अच्छा है. लेकिन उन्होंने कहा कि मुझे अच्छे इंसान का ही रोल करना है.
दुनिया में होते हैं खराब इंसान और खराब का भी रोल किसी ना किसी को करना पड़ेगा, लेकिन मैं नहीं करूँगा. तो ये कुछ जिंदगी के हिस्सों के तौर पर उन्होंने अपने लिये कुछ वो बनाये. दूसरी बात यह है कि समय के भीतर से लोग बनते और बिगड़ते हैं. भीष्म साहनी जो बने वो अपने समय के भीतर थे. उन्होंने एक नाटक पार्टी के आदेश पर लिखा था, "जादू की कुर्सी" जो नेहरू की सरकार को डिनाउंस / बदनाम करने के लिये लिखा था. हालांकि बलराज साहनी ने इस नाटक पर अफ़सोस जताते हुए कहा कि हम नेहरू की नीतियों का विरोध करते, लेकिन विरोध का यह तरीका सही नहीं था, मतलब हमारे निजाज के अनुकूल नहीं था. वो नाटक सुपरहिट हुआ क्योंकि उसमें मजाकिया चीजें थीं, लेकिन बाद में बैन हो गया और इप्टा बैन हो गया. फिर भीष्म जी शिमला चले गये. तो वहाँ जहाँ भी ये नाटक करते, वहाँ पुलिस का छापा पड़ता और ये पीछे के दरवाजे से भाग जाते. भीष्म जी के ससुर के एक सम्बन्धी पुलिस में उच्चाधिकारी थे. वे इनको गिरफ्तारी से बचाते थे और भीष्म जी को बहुत डांट पड़ती थी. लेकिन भीष्म जी को ना बाज़ आना था, ना वो बाज़ आये ! करते रहे काम.
इप्टा के भीतर भीष्म जी ने जिस तरह का सिलसिला अपनाया, वो बहुत ही मानीखेज था. कि इप्टा के अंदर नाटक की समझ को ही एक नया रूप उन्होंने दिया. कि एक नाटक भी ऐसे हो सकता है, जिसमें समूह पूरा शामिल हो. जो मैं कह रहा हूँ, वो केवल मेरा भाषण ना हो जाय, सब लोगों का भाषण हो. जो नाटक भी लिखा जा रहा है, वो सबका नाटक हो. उस "हानूश’ को तैयार करने में, जो बैठकें होती थीं, उसमें नाटक को रोज रोज बुना जाता था. हानूश की वो घड़ी और उसके साथ जुडी हुई किवदंती को उन्होंने जब भारतीय संदर्भ में एक नाटक के भीतर पिरोने की कोशिश की तो ये स्थिति आई लगभग कि जो वो करना चाहते थे नाटक का अंत वो नहीं कर पाए. क्योंकि जब आपने बीस लोग को इन्वोल्व कर लिया है, तो फिर ऐसा थोड़े है कि आपने हमारी सलाह पूछी और फिर करना जो आपको है, आप करो ! तो बाकी सब असहमत थे उनके निष्कर्ष से कि, इसको ऐसे नहीं खत्म होना चाहिए. लेकिन फिर उन्होंने उन बीस लोगों के राय की कद्र करते हुए उन्होंने इस नाटक को जो सबकी मंशा थी उसके हिसाब से बदला. तो ये नाटक को लिखने का फिर फिर उसके मंचन का... इस तरह के बहुत सारे उन्होंने नए काम किए. कृष्ण सोबती ने "हम हशमत’ में बहुत छोटा सा ही लेकिन बहुत अच्छे से रेखांकित किया है, इतने लहीम सहीम आदमी ! मतलब मुझे तो फर्क नहीं महसूस होता. हबीब तनवीर के साथ ज्यादा रहा हूँ. हबीब तनवीर और भीष्म मेरे जेहन में एक साथ एक जैसी शक्लों के साथ आते हैं. पतले दुबले लंबे, बोलने का एक खास अंदाज़... भीष्म जी खुद एक माध्यमवर्ग से आये थे. ‘तमस’ के लेखन में संबंध में उनकी पत्नी शीला जी बताती हैं कि गर्मियों की छुट्टियों में ऊपर चढ़ जाते थे और गर्मी है, बारीश है, क्या है.... किस तरह गर्मी में छत पर पंखे के बिना, लिखते जाते थे और अगली गर्मियों में पूरा कर लिया. 1971 में पकिस्तान के साथ युद्ध हो चुका था, यानि फिर से हिंदुस्तान के अंदर हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान को लेकर के एक अलग तरह का माहौल बनाया जा रहा था. और वैसे में ‘तमस’ का आना एक बहुत बड़ी साहित्यिक घटना थी. क्योंकि टाइमिंग की बात है. वो उस वक्त आया जब खुद कांग्रेस को भी इसकी बहुत ज्यादा जरूरत थी !
और केवल कांग्रेस को ही नहीं, मेरे ख्याल से उस समय के लोहियावादी जो होंगे सेक्शन... क्योंकि देशभक्ति की परतों को खोलने वाला उपन्यास था "तमस’. लेकिन ये बात भी मुझे आज विचारणीय लगती है, जब हम आज देख रहे होते हैं, हमारे समय में भीष्म साहनी को, हमारे समय में ‘तमस' को, हमारे समय में साम्प्रदायिकता की हत्या को... तो इस बात को थोड़ा सोचने की जरूरत है कि क्या हम लोगों को ये बताते रहें कि कुछ लोग हैं, जो हमें बाँटना चाहते हैं. कुछ लोग हैं, जो हमें जातियों में, धर्म के नाम पर बाँट कर के, तकसीम करके अपना कुछ ना कुछ मुनाफा कमाना चाहते हैं. वो आग लगाते जांय, हम पानी ले ले कर के पीछे...नहीं. या हमें कोई ऐसी करवाई की तरफ सोचना चाहिए. आज़ादी के और पहले से, मेरे ख्याल से 1920 के आसपास पहले साम्प्रदायिक दंगा फूटता है, पंजाब में. तबसे लेकर के अब तक लगभग 90 साल का साम्प्रदायिक इतिहास हमारा है. और लगभग 90 साल से हमने जो एप्रोच रखी है, इस समस्या के प्रति वो ये रखी है कि हम लोगों को ये बताएं कि उनका पर्दाफाश करेंगे. लेकिन इतनी लंबी लड़ाई कि और कुछ लड़ाई में हमलोग कई जगह पर जीते भी हैं. और कई जगह पर उसमें पिछाड़ भी हुई है, पीछे भी आये. अगर हम देखें तो 92 में जब बाबरी मस्जिद को डहाया गया, उसका डहाना हम जैसे लोगों की हार लेकिन, उसके बाद जिस तरह से देश की जनता ने साम्प्रदायिक शक्तियों को बाहर कर दिया सत्ता से, वो हमारी जीत है. गुजरात के भीतर नरसंहार के लिये न केवल आरोपित बल्कि सजायाफ्ता अमित शाह इस देश के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित हैं, ये बहुत बड़ी हार है.
हम लोगों के लिये, लेकिन ये बहुत बड़ी जीत भी है कि, ये गम के और चार दिन/सितम के और चार दिन... ये दिन भी जायेंगे गुजर/ गुजर गए हज़ार दिन. तो फिर से हम आ जायेंगे अपनी जगह. ये तो चलता रहेगा. जो विजनरी हैं, जो बड़े पोलिटीशियन्स हैं, जिन्होंने इतिहास को और वर्तमान को और भविष्य को अपनी निगाह के केन्द्र में रखा है, वो एक हिस्से के चुनाव से खुश नहीं होते. और एक जगह के विधानसभा, लोकसभा चुनाव से ये नहीं मानते कि हम हार गए. तो वो तो ठीक है, हमारी लड़ाई जारी है, और रहेगी. और इतना लंबा बंटा हुआ समाज है, पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता है. जातियों की, धर्मों की, तमाम तरह की दरारें हैं. इसको पाटने में भी वक्त लगेगा. और एक तजुर्बा मैं आपसे बाँटना चाह रहा हूँ कि आज यहीं वाकई में. पहली बार ये ख्याल यहाँ घाटशिला में आया... वो इसलिए कि मैं यहाँ पर ऑर्गेनाइज्ड सेक्टर के एरिया में बैठा हुआ हूँ. जो माइनिंग का क्षेत्र है. यहाँ पर मजदूरों का. मैंने उस संवेदन क्षेत्र के मजदूरों का, एक अलग तरह का हमने एक् दौर देखा है. आपमें से जो एटक से जुड़े हैं, वे होमी दाजी का नाम जानते होंगे. कपडा मिलों के मजदूर थे, एटक के महासचिव थे... इकट्ठा मजदूर आते थे बस्तियों में, उनको कभी ये नहीं समझाने की जरूरत पड़ती थी कि हिन्दू मुसलमानों को प्रेम से रहना चाहिए. और हमारा इतिहास ये है और शिवाजी ये थे. और इतिहास को जानो. और संस्कृति को जानो और गंगा-जामुनी सभ्यता... ये सब कुछ मजदूरों को समझाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. उनको एक जगह काम मिल रहा है, जहाँ से उनकी रोजी रोटी चलती है.
वो रोजी रोटी उनको एक दूसरे के नज़दीक लाती थी. और जब वो एक दूसरे के नज़दीक जाते थे... एक तरह की मल्टीम क्लास कोलोनी के अंदर रहते थे. एक साथ बस्ती के अंदर रह रहे हैं, जो श्रमिकों का क्षेत्र है. वहाँ पर धीरे धीरे उनके... चाहे वो अलग अलग जाति के हों, अलग अलग धर्मों के हों, उनके परिवारों के बीच में, उनके बच्चों के बीच में एक रिश्ता बनता ही. ये लाजिम है कि बनेगा ही. और किसी के घर में आज चाय नहीं है, किसी के घर में आज दूध नहीं है, किसी के घर में शक्कर नहीं है... किसी के यहाँ अचानक मेहमान आ गए हैं. तो सब एक दूसरे से, कोई किसी भी मज़हब का हो, रिश्ता बनाता था. और ये जगहें आखिर में शिकार हुई हैं, साम्प्रदायिकता के हमले का, आप कभी भी देख लो. जिस बात की तरफ मैं इशारा कर रहा हूँ कि "तमस’ के भीतर भी जिस चीज की तरह वो इशारा है, हल्का सा. और वहाँ पर "तमस’ शायद कमजोर है, लेकिन उन्होंने अपना रोल प्ले कर दिया. सारी चीजें हम भीष्म साहनी से क्यों उम्मीद करें. उन्होंने जो करना था, कर दिया. नया लिखें. तो वो मुझे लगता है कि ये एक करवाई हो कि जब आप लोगों को रोजी रोटी के तार से जोड़ करके कानून लाते थे, और रोजी रोटी के मुद्दे पर जब कोई लूटते थे, तब उनके भीतर ऐसे भाईचारगी के और तमाम तरह के कार्यक्रम करते हुए... आप उनकी भीतर एक मज़बूत इंसानियत का रिश्ता भी कायम करते थे. तब जातिवाद के बंधन टूट सकते थे. तब मजहब के, जो फिरकापरस्ती के बंधन ये तोड़े जा सकते थे. उस वक्त हो सकता है हमारे के लोगों ने कम काम किया हो अगर उस वक्त ये सोचते कि ये इतनी ज्यादा ताकतवर हो जाएँगी ये ताकतें, तो इन चीजों की तरफ भी अपने मजदूरों को धीरे धीरे दीक्षित करने की भी कोशिशें की जातीं. वो शायद नहीं हुआ. क्योंकि अभी भी, जब 2 सितंबर के हड़ताल के भीतर दिल्ली रूकती है. और पूरा देश थम जाता है कि, मजदूर हड़ताल पर हैं. तब कोई हिंदू मजदूर हड़ताल पर है, मुसलमान है. ये बात तो नहीं होती ! तो ये पोलिटिक्स को फोरप्ले में लाना पड़ेगा. मतलब, इस पॉलिटिक्स को जो कम्युनिलिज्म वर्कर सेक्युलरिज्म की पॉलिटिक्स हो गई है इस देश के अंदर, उसमें हम भी फंसे हुए हैं. हमारी मजबूरी है. ये आ जायेंगे तो ये आफत आ जायेगी. तो इससे तो ये छोटे ठीक हैं, ये जातिवाद कर रहे हैं, ये कर रहे हैं, इनको ही आ जाने दीजिए.
तो ये ही पॉलिटिक्स का हमलोग भी शिकार होते जा रहे हैं. जिसके भीतर हमारी जो ओरिजिनल राजनीति जो है, वो कहीं ना कहीं कमज़ोर होती जा रही है. इसकी तरफ अगर हमलोग ध्यान कर सके, तो शायद हम "तमस" लिख पायें या नहीं पायें, भीष्म साहनी को हमारी बहुत सच्ची श्रद्धांजली हो सकती है. ये अभी कहाँ बाँटने की कोशिश है. अभी जो हमारा समय है, ये कहाँ बाँटने की कोशिश है ? ये हमारे समय हमारा... इसको हिन्दू मुसलमान में बाँटने की या दलित और महादलित और ओबीसी और सवर्ण और अवर्ण... इस सबमें बंटने की कोशिश कर रहे हैं, तो इसका एक दूसरा पहलू कभी सोचिये.
हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद से जब से उद्योग धंधे और तरह तरह के पूरे भारत की आर्थिक संरचना को बनाकर के सोचा गया कि इसको आगे बढ़ाना है. उसमें हम अपने देश की कुल चार सौ पैंसठ मिलियन जो मजदूर हैं आज, उनमें से हम मुश्किल से दो परसेंट को ऑर्गेनाइज़ड सेक्टर के भीतर आज बचा पाए हैं. जिसको कि आठ से दस परसेंट तभी ले जाया गया था, वो धीरे धीरे नीचे आने लगा. ये मजदूर कहाँ जा रहे हैं ? छिटक करके कोई चार अमरूद लेकर के बैठा है सड़क किनारे. कोई शराब के ठेके पर बाहर दो दो रूपये इकठ्ठे कर रहा है. मतलब, इस चीज को हमें शायद आगे दस परसेंट से बीस और तीस और चालीस और पचास... और फिर पुरी तरह उस पर ले जाना था, उसको हमनें... तो ये तो मजदूर की स्थिति है. और दूसरी तरफ, जो खेत हैं, जो खलिहान हैं, उनके भीतर जितनी फसल नहीं हो रही है, उतनी लाशें लटक रही हैं. ये जितने किसान आत्महत्या कर रहे हैं. अफ्रीका के देशों के भीतर भी, जहाँ पर कि हमसे कई गुना कम उपज है. कोई तकनीक नहीं है. वहाँ भी, और हमारे देश के भीतर भी, जहाँ बंगाल का अकाल पड़ा. 1943 का, और उसके पहले 1900 का अकाल, 1901 का अकाल, 1902 का अकाल. ये सब होने के बाद भी कभी किसानों ने ऐसी आत्महत्याएं की हों, ऐसा दुनिया के इतिहास में, धरती के इतिहास में नहीं है. आपको देखने को नहीं मिलता. तो ये भी समझने की बात है. जब हम ये कहते हैं, उससे इस समय तक कुछ नहीं बदला. तो इसका मतलब ये है कि, कुछ तो बदला है. दुश्मन ज्यादा ताकतवर हुआ है. उसके हथियार तेज हुए हैं. हमारे लोग जो हैं, वो अपने आपको लटका रहे हैं फंदों पर, उनके खिलाफ खड़े होने के बजाय. हमारे लोग बंट रहे हैं, अलग अलग जातियों के पीछे, आलग अलग फिरकों के पीछे बंट रहे हैं. तो जो ताकत हमारी... कहाँ ? फैज़ ने लिखा है ना, ‘हम मेहनतकश जग वालों से'... कहा था कि,
'ये सेठ व्यापारी, रजवाड़े दस लाख तो
हम दस लाख करोड़ !
ये कितने दिन अमेरिका से जीने का सहारा माँगेंगे ?
ये फैज़ ने लिखा. अब ये दस लाख हों और हम दस लाख करोड़ हैं, तो जो इसका लॉजिकल क्न्क्लुजन होना चाहिए. जो इसकी तार्किक अन्विति होनी चाहिए, वो ये होनी चाहिए कि दस लाख करोड़ दस लाख के खिलाफ खड़े हो जांय... .लेकिन ये हो नहीं रहा क्योंकि सब आपस में बंटे हुए हैं. तो ये राजनीति को हम कैसे रिवाइव करें, ये हमारे समय की चुनौती है.
इसके बाद जयनंदन जी ने अपने अध्यक्षीयवक्तव्य में कहा कि, घाटशिला के लिये प्रासंगिक है कालजयी, सार्वभौम रचनाकार भीष्म साहनी को याद किया जा रहा है. रचनाकार तो सार्वभौम होता ही है. हमारे समय या आने वाले समय में भीष्म साहनी हमेशा प्रासंगिक रहेंगे. उन्होंने याद किया कि जब 1998 में जमशेदपुर में लघु पत्रिका सम्मलेन आयोजित हुआ था, भीष्म साहनी पहली बार जमशेदपुर आये थे. वे बिलकुल सरल मानव थे, लगता ही नहीं था कि कहीं से भी इनमें बड़ा सहित्यकार होने का बोध हो.
उनकी रचनाएँ समय की कसौटी पर कसी जांय तो कहीं से भी अप्रासंगिक नहीं लगतीं. उनकी सारी रचनाएँ अपने समय को पकड़ने की जो ताकत होती है, उसका गवाह हैं. अपनी आत्मकथा "आज के
अतीत’ से कुछ बातें उन्होंने बतायीं, जिससे भीष्म जी के व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है. ‘हिंदी कहानी' पत्रिका का सम्पादन भीष्म जी ने किया. भीष्म जी ने विपुल रूसी साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया. अनुवाद के क्षेत्र में भी उन्होंने महती काम किया. हमारे बीच आज भी उनके अनुवाद इस तरह हैं, कि हम समझ सकते हैं उसको पढ़कर कि, रूस क्या है, कम्युनिज़म क्या है, साम्यवाद की धाराएँ किस पर चलती हैं. भीष्म साहनी बहु आयामी प्रतिभा के धनी थे. "चीफ़ की दावत’ का संदर्भ देते हुए जयनंदन जी ने कहा कि, यह माईल-स्टोन कहानी है. और जो आज का विषय है हमरे समय में... तो यूज एंड थ्रो जो आज हमारे समय में है, ये उस कहानी में आप देख सकते हैं. कितना स्वार्थी और खुदगर्ज़ हो सकता है आदमी, इसकी बहुत बारीक व्याख्या उस कहानी में भीष्म जी ने की है. ‘हानूश' नाटक लिखकर जब उन्होंने बड़े भाई बलराज साहनी और फिर रानावि के निर्देशक अब्राहिम अल्काजी को पढ़ने दिया और उनकी उपेक्षा से हतोत्साहित हुए. लेकिन इतना बड़ा लेखक जो बनता है आदमी, तो रास्ते में इतनी उपेक्षाएं... अवहेलित होना पड़ता है आदमी को. लेकिन भीष्म साहनी उस मिट्टी के बने हुए थे, जिनपर इन चीजों का असर नहीं था. वो अपने काम में मगन रहते थे, मस्त रहते थे. और उन्होंने लेखन को अपना जो सरोकार बनाया, समाज से जोड़ा, दुनिया से जोड़ा, कम्युजिज्म से जोड़ा, सम्प्रदाय से जोड़ा. वो चीजें आज भी प्रासंगिक हैं, और वो सदा प्रासंगिक रहेंगी.
कार्यक्रम में अर्पिता श्रीवास्तव, सुश्री अमृता सिंह, सुश्री रुपाली शाह, गगन सिंह भुल्लर, सुश्री अद्रिजा रॉय, माम्पी दास कॉम. शशि कुमार, जयप्रकाश, मोहम्मद निजाम, छवि दास, चन्द्रमोहन किस्कू, अंकित शर्मा, प्रो. इंदल पासवान, एस.एन. सिंह, शीला जी, कॉम. ओमप्रकाश सिंह, गणेश मुर्मू, शैलेन्द्र अस्थाना, नीलिमा सरकार, बिजितेंद्र सरकार, गोपाल प्रसाद सिन्हा, रवि प्रकाश सिंह, गौतम कुमार रॉय आदि उपस्थित रहे. धन्यवाद ज्ञापन लतिका पात्र ने किया.
प्रस्तुति : ज्योति मल्लिक/ शेखर मल्लिक
(घाटशिला, पूर्वी सिंहभूम, झारखण्ड)
मोबाइल : 09852715924
07858892727
ईमेल : shekharmallick@yahoo.com
jyoti.mallik.18@gmail.com
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